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250...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन 2. जिस संस्कार के बल से मानव अपने गृहस्थ पंपच के साथ संयुक्त करने
में समर्थ होते हैं वही संस्कार ‘विवाह संस्कार' है। 3. जिस संस्कार से संस्कृत होने पर शरीर के पृथक्-पृथक् रहने पर भी
संस्कृत दो व्यक्तियों की आत्मा एक बन जाती है, वह विवाह संस्कार है। लौकिक दृष्टि से देखें तो विवाह एक लौकिक कर्म है, वैषयिक तृप्ति का साधन मात्र है, परन्तु प्रबुद्ध मानव की दृष्टि में 'विवाह' एक अलौकिक सम्बन्ध है, जो कभी किसी भी उपाय से विच्छिन्न नहीं किया
जा सकता। 4. जिस संस्कार के बल से मानव मानवी मात्र में निसर्गत: प्रवृत्त अपने राग
को एक मानवी में और मानवी मानव मात्र में निसर्गत: प्रवृत्त अपने राग को एक मानव में नियन्त्रित करने हेतु समर्थ हो सके, वही विवाह
संस्कार है। 5. जिस संस्कार के बल से लौकिक राग को दिव्य राग में परिणत किया जा
सके, वही दिव्य संस्कार विवाह संस्कार है।
लौकिक प्रेम आसक्ति है और अलौकिक प्रेम भक्ति है। लौकिक आसक्ति संसार है और ईश्वर में आसक्ति भक्ति है। भक्ति ही मुक्ति है। ___लौकिक आसक्ति का तिरोभाव एवं अलौकिक आसक्ति का आविर्भावब्रह्मचर्य, संयम, सेवा और सदाचार जैसे दिव्य गुणों से ही सम्भव है। इन दिव्य गुणों के प्रकटीकरण में विवाह ही सहकारी होता है। इस तरह महर्षि वात्स्यायन ने विवाह को मुक्ति का पारम्परिक कारण माना है। 6. जिस संस्कार से समाज व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य, कुटुम्ब-स्वातन्त्र्य, समाज
स्वातन्त्र्य, राष्ट्र-स्वातन्त्र्य, विश्व-स्वातन्त्र्य रक्षा की ओर उन्मुख हो सकें, वही विश्व रक्षक संस्कार विवाह संस्कार है।
वेदों में तन्त्र शब्द का अर्थ मर्यादा किया है अत: अपनी-अपनी नैसर्गिक मर्यादा ही अपना स्वातन्त्र्य है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रत्येक दशा में विवाह संस्कार के अर्थ को घटित किया जा सकता है।