________________
विद्यारम्भ संस्कार विधि का रहस्यात्मक स्वरूप 233
याज्ञवल्क्यस्मृति की व्याख्या आदि इस संस्कार के विषय में प्रमाण हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि उक्त सभी ग्रन्थ भारतीय कर्मकाण्ड साहित्य के इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त आधुनिक हैं। 2
यहाँ एक प्रश्न यह उभरता है कि गृह्यसूत्रों और धर्मसूत्रों में निष्क्रमण, अन्नप्राशन जैसे साधारण संस्कारों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है, तब विद्यारम्भ जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कार का उल्लेख क्यों नहीं ? इसका स्पष्टीकरण केवल इस तथ्य द्वारा किया जा सकता है कि जिन संस्कारों का उदय प्राक्सूत्रयुग में हुआ, उस समय वैदिक संस्कृत बोलचाल की भाषा थी और वेदों की प्राथमिक शिक्षा का आरम्भ उपनयन संस्कार से होता था, अतः वेदों के विवेचन के लिए संस्कृत भाषा को लिखने और पढ़ने की प्राथमिक योग्यता अलग से आवश्यक नहीं थी। इसके अतिरिक्त अति प्राचीनकाल में लेखन का प्रचलन भी नहीं था या कम-से-कम बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा में उसका उपयोग नहीं होता था अतः वैदिक संहिता या श्रुति की शिक्षा आरम्भ करने के लिए उपनयन के अतिरिक्त अन्य किसी संस्कार की आवश्यकता नहीं हुई।
ऐतिहासिक विकास क्रम में जब संस्कृत साहित्यिक भाषा बन गई। उस समय संस्कृत साहित्य समृद्ध हुआ; व्याकरण, निरूक्त आदि का विकास हुआ तथा अन्य अनेक विद्याएँ और शास्त्र भी अस्तित्व में आए। साथ ही विद्या के इस विपुल भण्डार की सुरक्षा के लिए वर्णमाला और लेखनकला का आविष्कार हुआ, तब संस्कृत-साहित्य के अध्ययन की प्राथमिक शिक्षा आवश्यक हो गई, और एक नवीन संस्कार की अनिवार्यता प्रतीत हुई। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए विद्यारम्भ-संस्कार अस्तित्व में आया । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि विद्यारम्भ संस्कार कालक्रम से अस्तित्व में आया अतः यह अन्य संस्कारों की अपेक्षा परवर्तीकालीन है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में विद्यारंभ संस्कार को तेरहवाँ स्थान दिया गया है, जबकि वैदिक मत में इसे दसवाँ स्थान प्राप्त है। इसमें तेरहवाँ 'समावर्त्तन' नाम का संस्कार है। दिगम्बर परम्परा में विद्यारम्भ के स्थान पर लिपिसंख्यान नाम का संस्कार है, जो विद्यारम्भ के समरूप प्रतीत होता है।