________________
अध्याय 14
विद्यारम्भ संस्कार विधि का रहस्यात्मक स्वरूप
विद्या मानव जीवन का अभिन्न अंग है। विद्याध्ययन ही एक मानव को मानव की कोटी में उपस्थित करता है एवं उसमें अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करता है। वस्तुतः विद्याध्ययन का प्रारंभ करवाने हेतु यह संस्कार किया जाता है। जब बालक का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाए, तब उसकी शिक्षा व्यवस्था का आरंभ संस्कार के माध्यम से किया जाना चाहिए। यह संस्कार बालक की शैक्षणिक यात्रा का प्रमुख अंग है। इस शिक्षण के द्वारा वह बहुत कुछ सीखता, समझता, सुनता और पढ़ता है। इस प्रकार यह संस्कार उसके भावी जीवन का निर्माता होता है। इस समय उसे जो कुछ सिखाया या समझाया जाता है, वह उसे अपनी अन्तर्चेतना पूर्वक ग्रहण करता है, उसकी समझ-शक्ति काफी कुछ विकसित हो जाती है अतः बालक के लिए किया जाने वाला विद्यारम्भ संस्कार सभी संस्कारों से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है ।
इस संस्कार के उद्भव एवं विकास की यात्रा का विवेचन करते हैं, तो जैन परम्परा की दृष्टि से यह संस्कार अति प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, औपपातिक सूत्र, राजप्रश्नीय सूत्र, कल्पसूत्र आदि में विद्यारम्भ संस्कार का सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है। 1 ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने पर इसका उद्भव सभ्य समाज की संरचना होने पर ही हुआऐसा ज्ञात होता है। यही वजह है कि क्रम की दृष्टि से देखें, तो विद्यारम्भ संस्कार उपनयन के साथ या उसके पश्चात् किया जाना चाहिए। जैन परम्परा में विद्यारम्भ संस्कार का क्रम उपनयन संस्कार के बाद स्वीकारा गया है और यह क्रम प्रमाणित भी लगता है।
गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों एवं प्राचीन स्मृतियों में इस संस्कार को उपनयनसंस्कार में समाहित किया गया है। कतिपय ग्रन्थों जैसे - वीरमित्रोदय (संस्कारप्रकाश, भा.-1. पृ. 321 ), स्मृतिचन्द्रिका (संस्कारकाण्ड, पृ. 67)