________________
उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...213
यह हिन्दू संस्कार में एक असाधारण विधि थी। डॉ. अल्तेकर के अनुसार यह बालक के उत्तरदायित्वविहीन जीवन के अन्त का सूचक था तथा बालक को यह स्मरण कराता था कि अब उसे दायित्वपूर्ण जीवन जीना है।85 यह माता और पुत्र की विदाई का भोज भी हो सकता था, क्योंकि अध्ययन हेतु वह दीर्घकाल के लिए उससे पृथक् होने जा रहा था। इस अवसर पर माता का हृदय स्नेहासिक्त होना स्वाभाविक था और उसकी अभिव्यक्ति वह उसके साथ भोजन करके ही कर सकती थी।
स्नान- भोजन के पश्चात माता-पिता बालक को उस मण्डप में ले जाते थे, जहाँ आह्वान-योग्य अग्नि प्रदीप्त रहती थी, वहाँ बालक का मुण्डन होता था। उसके बाद बालक को स्नान करवाया जाता था। यह क्रिया प्रत्येक संस्कार के लिए अनिवार्य मानी गई, क्योंकि स्नान से संस्कार्य व्यक्ति के मन और देहदोनों शुद्ध हो जाते हैं।
कौपीन- स्नान के अनन्तर गुह्यअंगों को ढ़कने के लिए कौपीन पहनाया जाता था। उसके बाद वह आचार्य के निकट जाता और ब्रह्मचारी होने की इच्छा व्यक्त करता था।86 आचार्य उसकी प्रार्थना स्वीकार कर मन्त्र के साथ उत्तरीयवस्त्र देता था। वह मन्त्र निम्न है-'जिस प्रकार बृहस्पति ने इन्द्र को अमृतत्व का वस्त्र दिया, उसी प्रकार मैं दीर्घायुष्य, दीर्घ जीवन, शक्ति और ऐश्वर्य के लिए यह वस्त्र देता हूँ। यह सामान्य शिष्टाचार है कि धार्मिक-कृत्यों में शरीर का ऊपरी भाग वस्त्र से आवृत्त रहना चाहिए अत: भावी विद्यार्थी को उत्तरीय दिया जाता था। प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि मूलतः इस अवसर पर दिया जाने वाला उत्तरीय मृगचर्म होता था। मृगचर्म को आध्यात्मिक तथा बौद्धिक-सर्वोच्चता का प्रतीक माना है। इसके माध्यम से ब्रह्मचारी को अनवरत रूप से यह स्मरण कराया जाता था कि उसे आदर्श, चारित्रवान् व गम्भीर बनना है। कालक्रम में जब आर्य कृषक बनें, कातने एवं बुनने की कला अस्तित्व में आई, तो विद्यार्थी को कपास का वस्त्र दिया जाने लगा। गृह्यसूत्रों में विभिन्न वों के लिए विभिन्न पदार्थों से निर्मित वस्त्रों का विधान किया गया है। ब्राह्मण का वस्त्र शण से निर्मित, क्षत्रिय का क्षौम, वैश्य का कुतप या कुश का होना चाहिए।88 वैकल्पिक रूप से सभी वर्गों के लिए कपास का वस्त्र विहित था। सम्प्रति, सभी द्विजातियों को हरिद्रा में रंगे हुए कपास के सूती वस्त्र दिए जाते हैं।