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216...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन एवं शिक्षा-विकास के लिए इस तथ्य की अनुभूति होना परमावश्यक थी। उसके बाद विद्यार्थी को प्रस्तर-खण्ड पर आरूढ़ होने के लिए कहा जाता था। यह विद्यार्थी को स्वाध्याय में द्रढ़ एवं स्थिर रहने की प्रेरणा प्रदान करता था, क्योंकि द्रढ़-निश्चयता और चारित्र-बल ही विद्यार्थी जीवन के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
तदनन्तर आचार्य विद्यार्थी का दाहिना हाथ पकड़कर उसके शिक्षक का नाम आदि पूछता था, फिर उसके अध्यापन और रक्षा की जिम्मेदारी स्वीकार करता था। इसके साथ ही उससे अग्नि की एक प्रदक्षिणा और उसमें आहुति दिलवाई जाती थी।95 विद्याध्ययन के प्रारम्भ में विद्यार्थी को सावित्री मन्त्र का उपदेश दिया जाता था।96 यह सावित्री मन्त्र का उपदेश बालक के द्वितीय जन्म का सूचक था, क्योंकि आचार्य बालक के लिए पितृस्थानीय और सावित्री मातृस्थानीय मानी जाती थी।
गायत्री मन्त्र के उपदेश के पश्चात यज्ञीय-अग्नि को प्रथम बार प्रदीप्त करने तथा उसमें आहुति डालने का कृत्य किया जाता था। इस अवसर पर उच्चारित मन्त्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। इसके पश्चात वह विद्यार्थी भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करता था। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि वैदिक परम्परा में यह संस्कार विविध विधि-विधानों एवं महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों के साथ सम्पन्न किया जाता था। आधुनिककाल में उपनयन के शैक्षणिक प्रयोजन के अभाव में शैक्षणिक महत्त्व के विधि-विधान भी प्राय: लुप्त से हो रहे हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि यह विधि श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक-तीनों परम्पराओं में विस्तृत रूप से प्राप्त होती है। उपनयन संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों के सारभूत प्रयोजन
बालक जब ज्ञान प्राप्ति या विद्याध्ययन के क्षेत्र में प्रथम कदम रखता है, तो वह उपनीत कहलाता है। उपनयन संस्कार के द्वारा बालक को विद्याध्ययन के लिए आचार्य के पास भेजा जाता है। उस समय आचार्य(गुरु) विविध क्रियाकलापों द्वारा विद्यार्थी के जीवन को अनुशासित करता है, तन-मन एवं बुद्धि को पवित्र भावों से संस्कारित करता है। इस संस्कार की प्रत्येक क्रिया किसी न किसी उद्देश्य से की जाती है। उपनयन संबंधी क्रियाकलापों के कुछ प्रयोजन इस प्रकार हैं