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कर्णवेध संस्कार विधि का तात्त्विक स्वरूप
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हम देखते हैं कि कर्णवेध संस्कार अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। साथ ही इस संस्कार के सम्बन्ध में सभी परम्पराएँ एक दूसरे से प्रभावित हुईं हैं। उपसंहार
यह संस्कार पूर्ण पुरूषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरूष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है। कर्णवेध आयुर्वेद का एक विधान है। कई रोगों के लिए यह निवारक का काम करता है इसीलिए यह बालक एवं बालिका - दोनों के लिए है। इन संस्कारों का सम्बन्ध न केवल वैयक्तिक जगत से ही है, अपितु सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक जगत् से भी रहा हुआ है। इस संस्कार से सम्बन्धित प्रत्येक विधि-विधान सार्थक और सुपरिणामी हैं जैसे - कान का छेदन करवाना स्नायुओं तथा रक्तचाप आदि की बीमारियों के इलाज के लिए एक प्रकार की चिकित्सा पद्धति है। इस क्रिया के माध्यम से उक्त रोगों का निवारण किया जाता है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य इस संस्कार के काल से सम्बन्धित है। यह संस्कार तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा अन्य मतानुसार दसवें, बारहवें या सोलहवें मास में ही क्यों किया जाता है? इसका समाधान बहुत सुन्दर है। हम देखते हैं, बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी प्रत्येक क्रिया नैसर्गिक होती है। उसका भूख लगना, रोना, हंसना भी स्वाभाविक होता है । वह शिशु पीठ के बल दिन-रात लेटा रहता है, कभी करवट नहीं लेता क्योंकि करवट के समय में कर्ण स्थल पर मुखमण्डल का भार पड़ा होता है। यदि निर्दिष्ट समय से पूर्व कर्णछेद कर दिया जाए तो मुखमण्डल का भार पड़ने से छिद्र व्रण ( घाव ) का रूप धारण कर सकता है । दूसरी बात, इस समय तक कुछ शारीरिक बलिष्ठता भी आ जाती है। यह समय कर्णवेधन हेतु अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त रहता है, इस कारण इस संस्कार की अवधि जन्म के कुछ बाद तक मानी गई है।
संक्षेप में कहें तो सुविधि पूर्वक कर्णछेदन कर आभूषण पहनाना कर्णवेध संस्कार है। यह संस्कार शारीरिक स्वस्थता, बौद्धिक निर्मलता, धार्मिक पवित्रता और सामाजिक सभ्यता से अनुप्राणित है । इसमें अपनी-अपनी कुल परम्परा का निर्वाह गुण भी रहा हुआ है। अस्तु, यह संस्कार कुल परम्परा के अनुरूप किया जाता है।