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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप...179
सकता है अत: इस उद्देश्य की पर्ति के लिए इस संस्कार द्वारा नवयुवक को अनुशासित किया जाता है, योग्य शिक्षण दिया जाता है, मानव जीवन का मूल्य समझाया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वे राष्ट्र एवं संस्कृति की रक्षा का भार वहन करने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह प्रस्तुत संस्कार का उद्भव नागरिक आवश्यकताओं की परिपूर्ति के लिए हआ था, जो आज के युग में भी प्रासंगिक लगता है।
इस संस्कार की आवश्यकता के पीछे एक अवधारणा यह भी रही होगी कि बालक का विकास योग्य दिशा में हो, उसके जीवन की प्रारम्भिक भूमिका सुसंस्कारों से पल्लवित एवं पुष्पित हो, वह जीवन-जगत के सभी मूल्यों एवं सार-असार रूप तत्त्वों को भलीभाँति समझ सके, एतदर्थ बालक के लिए सद्गुरु की सन्निधि समुपलब्ध होना अति आवश्यक हो गया अत: इस उद्देश्य को केन्द्र में रखते हुए भी उपनयन संस्कार की आवश्यकता महसूस हुई-ऐसा प्रतीत होता है।
__ वस्तुत: उपनयन संस्कार द्वारा पशुता भाव का विलय होता है और मनुष्यता का गुण प्रकट होता है। प्रत्येक मनुष्य के चित्त में रही हुई वासनामूलक स्वार्थवृत्ति और संकीर्ण विचारधारा पशुता की कोटि में आती है, उपनयन के माध्यम से एक प्रकार का दूसरा जन्म होता है। यहाँ दूसरे जन्म का तात्पर्य-स्वार्थ से परमार्थ, पशुता से सज्जनता, अहं से अहँ, जीव से शिव, संसार से संयम, बाह्य से आभ्यन्तर की ओर प्रवृत्त होना है। यही वास्तविक जीवन है, इसलिए उपनयन को द्विजत्व धारण करना भी कहते हैं। द्विज यानी दूसरा जन्म लेना। वर्णित प्रसंग में इसका अभिप्राय मलिन वृत्तियों को छोड़ना, कुसंस्कारों का त्याग करना और सत्प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होना आदि माना गया है।
हिन्दू परम्परा में दो प्रकार के जन्म माने गए हैं। कहा है कि पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने से होता है अर्थात मनुष्य का पहला जन्म गर्भ में रहते हुए माता और पिता के सम्बन्ध से होता है तथा दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है।
उक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उपनयन संस्कार की आवश्यकता राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक सुव्यवस्था, सुसंस्कारों का बीजारोपण, वैयक्तिक विकास आदि अनेक दृष्टिकोणों को लेकर रही हुई है।