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196...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन • ब्रह्मचारी को गुरुमुख से श्रावकाचार पढ़ना चाहिए। गुरु मुख से पढ़ने का
अभिप्राय यह है कि श्रावक जीवन की बहुत सी ऐसी क्रियाएँ हैं, जो अनेक शास्त्रों के मन्थन करने से प्राप्त होती हैं, वे गुरु मुख से सहज ही प्राप्त हो सकती हैं। . श्रावकाचार का अध्ययन करने के बाद न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि
पारमार्थिक और लौकिक-विद्याएं पढ़नी चाहिए।
यदि विद्यार्थी क्षत्रिय है तो शस्त्र धारण करना चाहिए और वैश्य है तो व्यापार आदि में प्रवृत्त हो जाना जाहिए।
उपर्युक्त वर्णन का समीक्षात्मक दृष्टि से विवेचन करें तो यह अवगत होता है कि विद्यार्थी जीवन में प्रवेश करने एवं उससे बहिर्गमन करने की विधि विशिष्ट क्रिया द्वारा सम्पन्न होती है। इस क्रिया का बालक के मन-मस्तिष्क पर सम्यक् प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थी जीवन की वेशभूषा एवं व्रताचरण सम्बन्धी नियम पूर्ण वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक हैं। ये नियम बालक को सदाचारी एवं धर्माचारी बनने की प्रेरणा देते हैं। एक सुनिश्चित अवधि तक उक्त नियमों के साथ जीने वाला व्यक्ति मनुष्य जीवन की चरम ऊँचाईयों (गुणों) को पार कर लेता है, यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। भारतीय संस्कृति की यह परम्परा पूर्ण मौलिक, नैष्ठिक एवं औचित्यपूर्ण है। प्रत्येक माता-पिता को सुसंस्कारित बनने एवं बालकों को सुसंस्कारित करने के लिए यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य सम्पन्न करना चाहिए। जिनोपवीतधारी (विद्यार्थी) के प्रकार
यज्ञोपवीत धारण करने के बाद विद्याभ्यास करने वाले और गुरुकुल में रहने वाले ब्रह्मचारी मुख्यतया पाँच प्रकार के होते हैं। धर्मसंग्रह श्रावकाचार में ब्रह्मचारियों का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है 57. ___ 1. उपनयन ब्रह्मचारी - जो यज्ञोपवीत आदि धारण करके विद्याभ्यास पूर्वक अणुव्रत आदि स्वीकार करता है, वह उपनयन ब्रह्मचारी कहलाता है।
2. अवलम्ब ब्रह्मचारी - जो क्षुल्लक रूप में यज्ञोपवीत आदि धारण कर विद्याभ्यास के साथ-साथ अणुव्रत आदि का पालन करता है, वह अवलम्ब ब्रह्मचारी है।
3. अदीक्षा ब्रह्मचारी - जो यज्ञोपवीत एवं विद्याभ्यास पूर्वक क्षुल्लक आदि