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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...199
बारहवें अध्ययन में हरिकेशीबल का उदाहरण उक्त बात का पूर्ण समर्थन करता है। ये हरिकेशीबल चाण्डाल कुलोत्पन्न थे, किन्तु श्रेष्ठ गुणों के कारण प्रव्रज्या धारण कर मुनि जीवन के उत्तम संस्कारों से वासित हो गए। इसका आशय यह है कि किसी जाति या कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति उच्च या नीच नहीं हो जाता। व्यक्ति की उच्चता-नीचता का प्रमुख कारण गुण-अवगुण, सच्चारित्रताआचारहीनता, दूषित-अदूषित प्रवृत्ति आदि हैं।
भगवान महावीर का प्रसिद्ध उद्घोष है-'व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान् होता है।' इसका तात्पर्य यह है कि शूद्र को संस्कार का अनाधिकारी इसलिए नहीं माना गया कि वह चतुर्थ वर्ण में पैदा हुआ है। ____ आचारदिनकर में कहा गया है कि शूद्र को मुनि दीक्षा प्रदान करने के लिए उसका उपनयन संस्कार करके उसे ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित करना चहिए, फिर उसे दीक्षा देनी चाहिए। उपनयन संस्कार द्वारा वर्ण परिवर्तन भी संभव है। शूद्र को अयोग्य इसलिए माना गया है कि वह प्राय: माँस, मदिरा आदि का सेवन करता रहता है अत: उसका अन्न, जौ-विधि और मन्त्रों से रहित है, रूधिर के समान है। यही बात शूद्र के दोषों के सम्बन्ध में आपस्तम्ब ने कही है
अज्ञान तिमिरान्यस्य, मद्यपान-स्तस्यच ।
रूधिरं तेन शद्रान्नं, विधिमन्त्र विवर्जितम् ।। जैनों के अनुसार वर्ण व्यवस्था कर्माधारित है, जन्माधारित नहीं। शूद्रजाति को हीन मानने का एक कारण यह भी है कि वह प्राय: तमोगुण प्रधान होती है और शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से इस वर्ग में अनेक दोष विद्यमान रहते हैं, अन्यथा किसी व्यक्ति या वर्ण को अकारण छोटा-बड़ा नहीं बतलाया है, वरन् उसके सामाजिक-परिवेश तथा वैयक्तिक योग्यता-अयोग्यता के अनुसार ही यह विभाजन किया गया है। वास्तविकता तो यह है कि यदि प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति सच्चारित्री बन जाए, सन्मार्ग का पथिक बन जाए तो वह निश्चित रूप से सद्गति और मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
जैन विचारणा में वही मनुष्य शूद्र है, जिसका आचरण दूषित, गन्दा एवं निन्दनीय है, पर जिसे संसार की असारता का ज्ञान है, जो अनासक्त भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता है और सेवा कार्य को ही परम धर्म समझकर तन मन धन से पूरा करता है तो कोई कारण नहीं कि उसको नीच समझा जाए।