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उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ...177 है। मूलत: इसमें उप+नयन ये दो शब्द निहित हैं। इसके दो अर्थ किए जा सकते हैं। ‘नीयते अनेन इति नयनम्' अर्थात जिस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति को गुरु के समीप ले जाया जाता है, वह उपनयन कहलाता है। दूसरा, नयन शब्द नेत्र के अर्थ में रूढ़ है। इस दृष्टि से भी उपनयन शब्द की व्याख्या की जा सकती है। वह इस प्रकार है-ज्ञान रूपी नेत्र को उद्घाटित करना उपनयन है। यह ज्ञानचक्षु-चर्मचक्षु के बिल्कुल करीब रहता है, जिसका स्थान शास्त्रों में त्रिकुटि बताया गया है। यदि उपनयन का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ किया जाए, तो ज्ञान नेत्र के उन्मीलन हेतु किसी विशिष्ट व्यक्ति अर्थात शिक्षक के समीप ले जाने की योग्यता अर्जित करना उपनयन है। इस तरह दोनों ही अर्थ महत्त्वपूर्ण सूचित होते हैं।
उपनयन का एक अर्थ है- पास या सन्निकट ले जाना। यहाँ शिक्षण के लिए आचार्य के पास ले जाना-यह अर्थ अभिप्रेत है। उपनयन शब्द के दो अर्थ इस तरह भी किए गए हैं-(1) उप-समीप, नयन-ले जाना अर्थात बालक को आचार्य या गुरु के सन्निकट ले जाना। (2) जिसके द्वारा बालक आचार्य के पास ले जाया जाता है, वह उपनयन संस्कार है। इससे सूचित होता है कि पहला अर्थ आरम्भिक है, किन्तु कालान्तर में जब इस संस्कार द्वारा ज्ञानार्जन किया जाने लगा तो यह दूसरा अर्थ भी प्रयुक्त होने लगा। उपनिषद् (1/11) में उपनयन अर्थ को सूचित करने वाला 'अन्तेवासी' शब्द आया है। यह गुरु के पास रहने के अर्थ को द्योतित करता है। शतपथ ब्राह्मण (11/3/3/2) में उपनयन का अर्थ करते हुए कहा गया है कि जो ब्रह्मचर्य ग्रहण करता है और लम्बे समय की यज्ञावधि ग्रहण करता है, वह उपनीत कहलाता है। अथर्ववेद में उपनयन शब्द का प्रयोग ब्रह्मचारी के अर्थ में किया गया है। यहाँ इसका आशय आचार्य द्वारा ब्रह्मचारी को वेदाध्ययन की शिक्षा देने से है।
गृह्यसूत्रों के युग तक विद्यार्थी द्वारा ब्रह्मचर्य-व्रत पालन के लिए प्रार्थना करना और आचार्य द्वारा उसकी स्वीकृति प्रदान करना ही उपनयन का अर्थ था, किन्तु परवर्तीकाल में उपनयन का महत्त्व बढ़ने लगा, तब इसके अन्य अर्थ भी विवक्षित हुए। वर्तमान में उपनयन का निम्न अर्थ प्रसिद्ध है- वह कृत्य जिसके द्वारा बालक आचार्य के समीप ले जाया जाए। एक आचार्य ने उपनयन को अत्यन्त व्यापक अर्थ प्रयुक्त किया है। वह केवल शिक्षा के अर्थ में ही सीमित