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अध्याय - 7
षष्ठी संस्कार विधि का व्यावहारिक स्वरूप
आर्य संस्कृति में देवी-देवताओं की आराधना का विशेष महत्त्व प्राच्य काल से ही रहा है। विविध सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न निमित्तों से विभिन्न देवीदेवताओं का स्मरण किया जाता है। यह संस्कार षष्ठी नामक देवी से सम्बन्ध रखता है। इस संस्कार में प्रमुख रूप से देवी - माताओं की पूजा की जाती है। श्वेताम्बर परम्परा में षष्ठी संस्कार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह संस्कार श्वेताम्बर परम्परा में ही उपलब्ध होता है, दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में इस नाम का एक भी संस्कार उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि वैदिक परम्परा में मातृकादेवी पूजन का उल्लेख अवश्य है, किन्तु संस्कार के नाम से पृथक पूजन करने का कोई वर्णन नहीं है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि षष्ठी नामक यह संस्कार श्वेताम्बर परम्परा का निजी संस्कार है। किन्तु इस संस्कार पर अन्य परम्परा का कोई प्रभाव नहीं हो यह कहना भी कठिन है, क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में षष्ठी माता के पूजन का प्रचलन आज भी है। षष्ठी संस्कार का अर्थ
आचारदिनकर में इस संस्कार का तात्पर्य ब्राह्मी आदि आठ माताओं एवं अंबिकादेवी के पूजन से है। यहाँ षष्ठी शब्द संस्कार अर्थ को द्योतित नहीं करता है। संभवत: यह शब्द कालवाची अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
दिगम्बर परम्परा में इस नाम का कोई संस्कार ही नहीं है। वैदिक परम्परा में भी षष्ठी नामक संस्कार का अभाव ही है, परन्तु मातृका - पूजन करने का वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है । गोभिलस्मृति (1/13) में कहा गया है कि सभी कृत्यों के आरम्भ में गणाधीश (गणपति) के साथ मातृका की पूजा होनी चाहिए | 2 गोभिलस्मृति (1/11-12) में चौदह मातृकाओं के नाम भी गिनाए गए हैं। वे इस प्रकार हैं - गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, धृति, पुष्टि, तुष्टि एवं इष्टदेवी । मार्कण्डेय (88 / 11 - 20 एवं 33 ) में