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शुचिकर्म संस्कार विधि का ऐतिहासिक स्वरूप ...119 विधि की दृष्टि से- श्वेताम्बर परम्परा में यह संस्कार सोलह पीढ़ियों तक के पुरूषों के आह्वान पूर्वक सगोत्रीजन, माता-पिता एवं बालक के स्नान द्वारा एवं स्नेहीजन मित्रजन आदि को भोजन करवाकर सम्पन्न किया जाता है तथा इस संस्कार को सम्पन्न करने के सम्बन्ध में कुछ विशेष निर्देश दिए गए हैं। दिगम्बर परम्परा में मृतक की अशुचि को दूर करने के लिए नाल गाढ़ने की विधि दर्शाई गई है तथा माता की स्नान क्रिया का वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय दृष्टि से वर्णन किया है। ये दोनों प्रक्रियाएँ मननीय एवं जानने योग्य हैं।
वैदिक परम्परा में मृतक की अशुद्धि को दूर करने के लिए अग्नि प्रदीप्त करने का प्रयोग दिखलाया गया है और उस अग्नि को दस दिनों तक प्रज्वलित रखने का सूचन किया गया है। इसके साथ ही उन दिनों में भूत-प्रेत आदि की बाधा उपस्थित न हो, उसके लिए धान्य के कणों एवं सरसों के बीजों की आहुति देने का विधान बतलाया है। वैदिक ग्रन्थों की यह प्रक्रिया भी महत्त्वपूर्ण मालूम होती है।
इस तरह हम देखते हैं कि भले ही शुचिकर्म क्रिया को श्वेताम्बर परम्परा में संस्कार के रूप में स्थान प्राप्त है किन्तु दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में भी इसे जातकर्म संस्कार में सामान्यतया स्वीकार कर लिया गया है और वह कई दृष्टियों से उपयोगी प्रतीत होता है अत: यह संस्कार अपरिहार्य है। उपसंहार
जैन धर्म भावना प्रधान धर्म है। यहाँ बाह्य शद्धि की अपेक्षा आभ्यन्तर शुद्धि को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है, किन्तु बाह्य को भी सर्वथा गौण नहीं किया है। जैन दर्शन की मान्यतानुसार बाह्य और आभ्यन्तर, द्रव्य और भाव, व्यवहार और निश्चय सभी का अपना-अपना स्थान है। वे एक-दूसरे के पूरक तत्त्व हैं। इस संस्कार में बाह्य शुद्धि की प्रधानता है, किन्तु उस शुद्धि का उद्देश्य आभ्यन्तर शुद्धि से है। ___वस्तुत: दैहिक शुद्धि, स्थान शुद्धि, वस्त्र शुद्धि के साथ-साथ भावनाओं की शुद्धि करना, वातावरण को निर्मल करना शुचिकर्म संस्कार है। इस संस्कार की उपादेयता क्या है? इस संस्कार की आवश्यकता क्यों हुई? इत्यादि बिन्दुओं को इस अध्याय के प्रारम्भ में सुस्पष्ट कर चुके हैं। ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि यह संस्कार अत्यन्त प्राचीन और गृहस्थ जीवन के लिए परम उपयोगी है।