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124...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन वह नाम एक सातत्य का सूचक हो। 'कृत' प्रत्यय में नाम का अन्त होना चाहिए, जिससे बच्चे के जीवन में क्रियाशीलता आए। कहा गया है-जो शब्द कृदन्त हो, तद्धितान्त नहीं हो, किसी दुश्मन से सम्बन्ध रखने वाला न हो और प्रारम्भ की तीन पीढ़ियों के नाम का स्मारक हो, वही नाम संस्कार के योग्य होता है।
वर्तमान युग की स्थिति चिन्ताजनक है। अब नामकरण की अर्थवत्ता का कोई मूल्य नहीं रह गया है। पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण की दौड़ में आज नामकरण एक संस्कार नहीं रहकर वाचिक विकार का रूप धारण करता जा रहा है। व्यक्ति पाश्चात्य संस्कृति का इतना गुलाम बन चुका है कि नाम के महत्त्व को बिल्कुल भूल गया है। अपनी सुविधा और दुनियाँ की अन्धी दौड़ में पागल बना व्यक्ति बालक-बालिकाओं के ऐसे नाम रखने लगा है, जिनका न कोई अर्थ निकलता है और न ही उस नाम की सार्थकता समझ में आती है। प्रायः हर घर में रिंकी, रिंकू, डबलू, बबलू, पिन्टू, मिन्टू, जैक, जॉन, डॉली जैसे नामों की आंधी बह रही है। पिता तो 'डैड' हो गए हैं और माता भी 'ममी' हो गई हैं और यही कह-कहकर हम बड़ा गौरव महसूस कर रहे हैं।
भारतीय संस्कृति का स्पष्ट उद्घोष है कि बालक का नाम कुल, जाति, वंश की परम्परा को शोभायमान करने वाला, चित्त को प्रसन्न करने वाला, गुणों का आविर्भाव करने वाला, विशिष्ट अर्थ का बोध कराने वाला तथा सरल-सुगम होना चाहिए, वही नामकरण संस्कार की उपादेयता को सिद्ध करता है। नामकरण संस्कार की त्रैकालिक आवश्यकता ।
नामकरण संस्कार की आवश्यकता विषयक चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि नाम प्रत्येक व्यक्ति की पहचान का आवश्यक अंग है। नाम समस्त व्यवहार का हेतु है। नाम समस्त पदार्थों का बोधक है। सृष्टि के समस्त क्रियाकलापों को गतिशील बनाए रखने का अनन्यतम कारण है। यह शुभ का वहन करने वाला तथा भाग्य नियोजक है। नामकरण की आवश्यकता को सिद्ध करने के सम्बन्ध में काफी कुछ हेतु दिए जा सकते हैं
नाम से वस्तुओं की पहचान होती है। नाम के द्वारा ही व्यक्ति की उपयोगिता एवं उसका विशिष्ट ज्ञान सबके लिए सहज बना रहता है। नाम के ही आधार पर व्यक्ति का इतिहास पृष्ठों पर अंकित रहता है। नाम के ही बल पर