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अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप... 141
वैदिक मन्त्रों के साथ स्वच्छ किए जाते थे और पकाए जाते थे। उसके बाद एक आहुति वाग्देवता को और दूसरी आहुति ऊर्ज्ज को दी जाती थी। साथ ही पिता द्वारा चार आहुतियाँ अलग से दी जाती थी । यहाँ भोजन शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। इस प्रसंग पर शिशु की समस्त इन्द्रियों की सन्तुष्टि के लिए प्रार्थना की जाती थी, जिससे वह सुखी व सन्तुष्ट जीवन व्यतीत कर सके । 17
इस अवसर के आवश्यक कृत्य सम्पन्न हो जाने पर पिता बालक को खिलाने के लिए सभी प्रकार के भोजन तथा स्वादिष्ट व्यंजनों को पृथक्-पृथक् रखता था और मौन पूर्वक अथवा 'हन्त' इस शब्द के साथ शिशु को भोजन कराया जाता था। 18 फिर ब्राह्मण भोजन के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता था । यह प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित विधि का स्वरूप है। वर्तमान युग की विधि को काफी परिवर्तन के साथ देखा जा सकता है। वैदिक परम्परा में इस विषय को लेकर भी काफी मतभेद हैं और यह प्रश्न भी वैदिक मत में प्रमुख रूप से उठा है कि शिशु को पहली बार कौनसा आहार खिलाया जाना चाहिए?
कुछ
दही,
सामान्य अवधारणा यह कहती है कि शिशु को समस्त प्रकार का भोजन और विभिन्न स्वादों का मिश्रण कर खाने के लिए देना चाहिए। 19 धर्मशास्त्र मधु और घृत को मिश्रित कर खिलाने का विधान करते हैं। वैदिक परम्परा के कुछ मतानुयायी मांस आदि (अमिष) भोजन का निर्देश करते हैं और बच्चे में विभिन्न प्रकार के गुणों का विकास करने हेतु विविध प्रकार के मांस आदि सेवन को आवश्यक मानते हैं। यह अत्यन्त प्राचीन काल की बाते हैं। वर्तमान प्रणाली में दही, घी और दूध का सेवन करवाया जाना ही प्रचलित है। मार्कण्डेयपुराण शिशु को मधु और घी के साथ खीर खिलाने का उल्लेख करता है। 20 इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक धर्म में प्रथम आहार को लेकर कई मत प्रचलित हुए हैं तथा वर्तमान में अन्न आदि के साथ दही, मधु, घृत या खीरा आदि को मिलाकर खिलाने का विशेष प्रचलन है ।
अन्नप्राशन संस्कार के सारगर्भित प्रयोजन
अन्नप्राशन संस्कार के पीछे अनेक विधि- अनुष्ठान सम्पादित किए जाते हैं। हमारे समक्ष उनके कुछ प्रयोजन इस प्रकार हैं
विविध आहारों में अन्नाहार ही संस्कार रूप क्यों ? अन्न को प्राण का देवता माना गया है। अन्न जीवन प्रदान करने वाला तत्त्व है। जो शक्ति अन्न