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षष्ठी संस्कार विधि का व्यावहारिक स्वरूप...107
समय सोना ही पसंद करते हैं। आंख खुलते ही बालक की दृष्टि से भगवती ओझल हो जाती है, अत: कभी-कभी शिशु बहुत जोर से रोने भी लगते हैं।
यह मननीय है कि बालक के जन्म होने के साथ ही घर में दस दिन का सूतक लग जाता है। इस अवधि में घर में प्रतिष्ठित देवताओं का पूजन परिवार के असगोत्रीय सदस्य (बहन-बेटी के परिवार) या ब्राह्मण द्वारा करवाया जाता है इसी कारण नामकरण संस्कार और हवन-पूजन का विधान ग्यारहवें दिन सम्पन्न किया जाता है, किन्तु पुराणों के अनुसार षष्ठी देवी का पूजन बालक के मातापिता द्वारा छठवें दिन किया जाता है, इसमें जनना शौच का विचार नहीं माना गया है।
षष्ठी देवी का पूजन प्राय: शाम को करने की परम्परा है, तदनन्तर रात्रिभर जागरण करते हैं।
इसमें जैन परम्परा की भांति षष्ठी देवी की प्रतिमा किसी काष्ठ पीठ या दीवार पर बनाई जाती है अथवा सुपारी, अक्षत पुन्ज आदि पर भी पूजा करने की परिपाटी है।
हिन्दू परम्परा षष्ठी पूजा की एक सुव्यवस्थित विधि भी है। आज बालकों के जन्म के छठवें दिन प्रसूतिगृह में षष्ठी-पूजन संस्कार का विधान प्रचलित है। इस वर्णन से ससिद्ध है कि षष्ठी देवी की उपासना का महत्त्व वैदिक परम्परा में भी पुरातनकाल से रहा हुआ है। षष्ठी संस्कार करवाने का अधिकारी
यह संस्कार श्वेताम्बर परम्परा में ही मान्य है अत: आचारदिनकर में इस संस्कार को सम्पन्न करने का अधिकार जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक को प्रदान किया गया है। षष्ठी संस्कार के लिए मुहूर्त विचार
यह संस्कार किसी शुभ दिन या शुभ नक्षत्र आदि में सम्पन्न किया जाता हो-ऐसा नहीं है। इस संस्कार कर्म के लिए शुभ दिन को अपेक्षित नहीं माना गया है। यह किसी निश्चित दिन विशेष में सुसम्पन्न किया जाता है। षष्ठी संस्कार हेतु श्रेष्ठ काल
श्वेताम्बर परम्परा में यह संस्कार जातक के जन्म से छठवें दिन संध्या के समय किया जाता है। दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में षष्ठी नाम का संस्कार ही प्रचलित नहीं है।