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... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
(7) शिशु के आभूषण (8) वादिंत्र (9) साधु को देने योग्य आहार - वस्त्र-पात्र आदि (10) संस्कारकर्त्ता को देने योग्य वस्त्र - आभूषण - मुद्रा आदि । 11 भारतीय साहित्य में वर्णित शुचिकर्म संस्कार विधि
श्वेताम्बर - श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्य वर्धमानसूरि ने शुचिकर्म संस्कार की निम्न विधि प्रस्तुत की है
सर्वप्रथम गृहस्थ गुरु निज-निज कुल के अनुसार सूतक के दिन व्यतीत होने पर सोलह पुरूषों तक उनके वंशजों का आह्वान करें, क्योंकि सोलह पीढ़ियों तक सूतक का दोष लगता है - ऐसी मान्यता है । • फिर आमन्त्रित किए गए सभी कुटुम्बियों एवं सगोत्रियों को पूर्ण स्नान एवं वस्त्र प्रक्षालन के लिए कहे। • उसके बाद शरीर शुद्धि किए हुए, पवित्र वस्त्र पहने हुए, वे सभी गोत्रज गुरु को साक्षी मानकर जिनप्रतिमा की पूजा करें। • उसके बाद बालक के मातापिता पंचगव्य से मुख शुद्धि कर स्नान करें । शिशु सहित अपने नाखून काटें। फिर ग्रन्थि से बंधे हुए दंपति जिन - प्रतिमा को नमस्कार करें। सधवा स्त्रियाँ मंगलगीत गाएं, जिनप्रतिमा के आगे नैवेद्य आदि अर्पित करें। साधुओं को यथाशक्ति दान दें। संस्कार कर्ता गुरु को वस्त्र - मुद्रा आदि दें। • शुचिकर्म संस्कार के दिन जन्म, चंद्र सूर्य दर्शन, क्षीराशन, षष्ठी-इन संस्कारों से सम्बन्धित दक्षिणा भी दे देनी चाहिए। उस दिन सभी गोत्रजन, स्वजन एवं मित्रजन को भोजन करवाएं। • तदनन्तर गृहस्थ गुरु उसके कुल आचार के अनुसार शिशु को पंचगव्य, जिनस्नात्रजल, सर्वोषधिजल एवं तीर्थजल से स्नान कराए। फिर बालक को वस्त्राभरण पहनाएं। यह शुचिकर्म संस्कार विधि है ।
यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि सूतक के दिन पूर्ण होने पर भी यदि उस दिन आर्द्र नक्षत्र हों, सिंहयोनि एवं गजयोनि नक्षत्र हों तो स्त्री को सूतक का स्नान नहीं करवाना चाहिए। 1. कृतिका 2. भरणी 3. मूल 4. आर्द्र 5. पुष्य 6. पुनर्वसु 7. मघा 8. चित्रा 9. विशाखा और 10. श्रवण- ये दस आर्द्र नक्षत्र माने गए हैं। यदि इन नक्षत्रों में सूतक स्नान कर लिया जाता है तो फिर प्रसव नहीं होगा, ऐसी मान्यता है । धनिष्ठा और पूर्वाभाद्रपद - ये दो सिंहयोनि के नक्षत्र तथा भरणी और रेवती - ये दो गजयोनि के नक्षत्र समझने चाहिए। 12
दिगम्बर- इस परम्परा में शुचिकर्म संस्कार की स्वतन्त्र विधि का अभाव है। यहाँ प्रियोद्भव(जातकर्म) नामक संस्कार विधि के साथ उसके साथ ही