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114... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
संक्षेप में कहें तो इस संस्कार विधि के माध्यम से न केवल दैहिक शुद्धि की जाती है अपितु स्थान, वातावरण, मन, बुद्धि एवं आत्मा की भी किसी न किसी रूप में विशुद्धि होती है ।
इस संस्कार के सम्बन्ध में यह बात भी विचारणीय है कि जहाँ प्रसव होता है, उस स्थल संबंधी अशुचि का निवारण तत्काल कर दिया जाता है। फिर दसवें या बारहवें या अन्य दिनों में पुनः यह प्रक्रिया क्यों की जाती है ? इसका सटीक जबाव यह है कि नाल का उच्छेदन करने के कारण बालक की एवं रक्तस्राव के कारण माता की अशुचि अनेक दिनों तक बनी रहती है। इसके पीछे एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि प्रसव काल की अशुचि का पूर्णतया निवारण न किए जाने पर माता एवं शिशु - दोनों ही किसी प्रकार के संक्रामक रोग या अन्य व्याधि से ग्रसित हो सकते हैं। इसी के साथ अपनीअपनी परम्परानुसार सूतक का जितना काल बताया गया है, उसका परिपालन करना भी इसका मुख्य हेतु है । इसमें सूतक काल पूर्ण होने पर विधि पूर्वक अशुचि को दूर करना चाहिए इसीलिए यह संस्कार विधि अन्य दिनों में भी की जाती है। श्वेताम्बर परम्परानुसार प्रसव के दिन दूर की गई अशुद्धि का इस संस्कार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है ।
शुचिकर्म संस्कार करने के शास्त्र निर्दिष्ट अधिकारी
इस संस्कार की सुव्यवस्थित विधि श्वेताम्बर परम्परा में ही प्रचलित है। अन्य परम्पराओं में इस संस्कार सम्बन्धी यत्किंचित् क्रियाकलाप ही देखे जाते हैं, अतः तदनुसार इस संस्कार सम्बन्धी विस्तृत जानकारी दे पाना असंभव है। श्वेताम्बर आम्नाय में यह संस्कार कर्म करवाने का पूर्ण अधिकारी जैन ब्राह्मण (गृहस्थ गुरु) या क्षुल्लक को माना गया है। 2
शुचिकर्म संस्कार योग्य मुहूर्त्त विचार
इस संस्कार कर्म को निष्पन्न करने के लिए किसी शुभ दिन को आवश्यक नहीं माना गया है। यह तो अपनी-अपनी कुल परम्परा द्वारा निश्चित किए गए दिन में किया जाता है। इस सम्बन्ध में ब्राह्मण आदि भिन्न-भिन्न वर्गों की कुल परम्पराएँ भिन्न-भिन्न मत रखती हैं।