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क्षीराशन(दुग्धपान) संस्कार विधि का क्रियात्मक स्वरूप ...99 सहनशीलता, गंभीरता आदि का भी बालक में विकास होता है। यह विकास या परिवर्तन माता-पिता के हार्मोन्स एवं बच्चे के प्रति उमड़ रहे वात्सल्य भावों के आधार पर होता है। एक दृष्टि से कहें, तो माता के स्तनपान द्वारा बालक का सम्पूर्ण जीवन ही निर्मित होता है। ये संस्कार बोतल के दूध या अन्य दूध के द्वारा नहीं दिए जा सकते हैं। वर्तमान युग में स्तनपान का कार्यक्रम शनैः शनैः समाप्त होता जा रहा है तो उसके विपरीत परिणाम भी हमें साक्षात् देखने को मिल रहे हैं। आजकल के बच्चों में विनम्रता, सरलता, समर्पण, दयालुता, आज्ञानिष्ठता आदि के गुण देखना चाहें तो निराशा ही नजर आएगी। इनके स्थान पर उद्दण्डता, अहंकारिता, आज्ञाहीनता, उच्छृखलता आदि दुर्गुणों ने अपना डेरा जमा लिया है। इन दुर्गुणों के प्रवेश होने के अन्य कई कारण और भी हो सकते हैं, किन्तु उनमें एक कारण बालक को माता के स्तनपान से वंचित रखना भी है। वर्तमान युग में इस प्रक्रिया को असभ्यता की कोटि में जाना जाता है।
यह पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है, परन्तु मानव विकास के लिए यह बहुत हानिकारक सिद्ध हो रहा है। यदि हमारी माताएँ सन्तान के उज्ज्वल भविष्य के लिए पुनर्विचार करें तो यह संस्कार पुनर्जीवित हो सकता है। इस संस्कार प्रयोजन का तीसरा कारण यह है कि नवजात शिशु के लिए माता के स्तनपान द्वारा प्राप्त होने वाला दूध अपेक्षाकृत अन्य माध्यमों से प्राप्त दूध से अधिक सुपाच्य एवं गुणकारी होता है, जिससे शिशु उस दूध को आसानी से पचा सकता है और उसका उत्तम शारीरिक विकास होता है। इस संस्कार की आवश्यकता का एक कारण यह माना जा सकता है कि दूध को अमृत के समान कहा गया है। उत्तम भावों द्वारा पिलाया गया एवं पिया गया दूध अमृत का कार्य करता है अत: बालक का जीवन अमृतमय (आयुष्मान्) बने, यह हेतु भी इस संस्कार की आवश्यकता को पुष्ट करता है। इस प्रकार क्षीराशन संस्कार की आवश्यकता अनेक बिन्दुओं से सुस्पष्ट है। क्षीराशन संस्कार करवाने के शास्त्र सम्मत अधिकारी
श्वेताम्बर परम्परा में इस संस्कार को करवाने का अधिकारी जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक को माना गया है। दिगम्बर परम्परा में इस संस्कार को माता-पिता द्वारा कराए जाने का निर्देश है। वैदिक परम्परा में यह संस्कार पिता द्वारा किए जाने का उल्लेख है।