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जातकर्म - संस्कार - विधि... 75
हाँ, इतना उल्लेख अवश्य मिलता है कि यदि अशुभ नक्षत्रों- आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल, गंडांत या भद्रा तिथि आदि में बालक का जन्म हुआ हो तो दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए शांतिक एवं पौष्टि कर्म अवश्य करना चाहिए, अन्यथा नवजात शिशु या उसके माता-पिता को दुःख, दारिद्र्य, शोक, मरण आदि कष्ट होते हैं।" दिगम्बर परम्परा में भी आदि में अशुभ नक्षत्र आदि में उत्पन्न दोषों को दूर करने के लिए शान्तिकर्म करने का निर्देश किया गया है। 7, इसी प्रकार का उल्लेख वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है |
इससे यह फलित होता है कि शिशु का जन्म उत्तम नक्षत्र आदि के योग में होना चाहिए, ताकि वह कुल एवं वंश-परम्परा की वृद्धि करने वाला हो । जन्म संस्कार का काल विचार
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में यह संस्कार गर्भ काल का समय पूर्ण होने पर अथवा गर्भ का प्रसव (जन्म) होने पर किया जाता है। वैदिक परम्परा में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएँ प्राप्त होती हैं। एक मान्यतानुसार यह संस्कार-कर्म नाभि बन्धन के पूर्व सम्पन्न किया जाना चाहिए | 10 दूसरी परम्परा के अनुसार यह संस्कार जन्मगत अशुचि को दूर करने के बाद किया जाना चाहिए। निष्कर्षतः तीनों परम्पराओं में यह संस्कार प्रसव होने के बाद ही किया जाता है।
भारतीय साहित्य में वर्णित जन्म संस्कार विधि
श्वेताम्बर– आचार्य वर्धमानसूरि ने जन्म संस्कार की यह विधि निर्दिष्ट की है
• सर्वप्रथम गर्भकाल की अपेक्षित समयावधि पूर्ण होने पर गृहस्थ गुरु ज्योतिषी सहित एकान्त एवं शोरगुल रहित स्थान पर आएं, जो सूतिकागृह से अत्यन्त समीप हो। वहाँ घड़ी भर पंचपरमेष्ठी का जाप करें। • तदनन्तर बालक का जन्म होने पर गृहस्थ गुरु ज्योतिषी को जन्म समय की पूर्ण जानकारी लेने के लिए निर्देश करे। वह ज्योतिषी भी जन्म के सही समय का निर्धारण करे ।
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उसके बाद नवजात बालक के पिता, दादा, चाचा आदि जब तक नाल अखण्ड रहे, तब तक की अवधि में गृहस्थ गुरु एवं ज्योतिषी को वस्त्र, आभूषण एवं द्रव्य आदि प्रदान कर उनका सम्मान करें। नाल छिन्न होने पर सूतक प्रारम्भ हो जाता है।