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90... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
उसके बाद शिशु को किसी देवालय में ले जाया जाता है, जहाँ धूप, पुष्प द्वारा देवार्चन होता है। शिशु देवता को प्रणाम करता है और ब्राह्मण उसे आशीर्वाद देते हैं। इसके पश्चात बालक को मामा की गोद में दे देते हैं और वही शिशु को घर लेकर आता है।
गृह्यसूत्रों के अनुसार पिता बालक को बाहर लेकर आता था और 'तच्चक्षुर्देवहितम्' आदि मन्त्र के साथ सूर्य के दर्शन करवाता था। 21 बृहस्पति में इससे कुछ भिन्न विधि कही गई है। उसमें शिशु को पिता द्वारा या मामा द्वारा बाहर लाया जाना, गोबर व मिट्टी से लीपे हुए आंगन पर बिठाना, पिता द्वारा ‘त्र्यम्बकं यजामहे' आदि मृतसंजीवन मन्त्र का जप करना, शिव-गणेश का पूजन करना और उसे फल आदि खाद्य पदार्थ दिए जाने का वर्णन है। 22
इस प्रकार वैदिक परम्परा में यह संस्कार अपनी कुल - परम्परा के अनुरूप गृह शुद्धि, मन शुद्धि, देवार्चन, मन्त्र - जाप और ब्राह्मण दान की विधि के साथ सम्पन्न किया जाता है।
सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों के प्रयोजन
नवजात शिशु को बाहरी दुनिया से परिचित करवाने हेतु कुछ विधिविधान निम्न प्रयोजनों से सम्पन्न किए जाते हैं।
बहिर्यान- निष्क्रमण संस्कार का काल चतुर्थ मास क्यों? दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में यह संस्कार लगभग तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है। इसके पीछे बच्चे की असहिष्णु त्वचा को कारण माना जा सकता है, क्योंकि उसकी तात्कालिक त्वचा में इतनी ग्राह्यता एवं सहनशीलता नहीं होती है कि बाह्य प्राकृतिक प्रभाव को सहन कर सके। यह प्रमाण पुरस्सर है कि नवीन - पौधा सूर्य के प्रभाव से मृतप्राय सा हो जाता है, उसी प्रकार चतुर्थ मास से पूर्व सूर्य के सम्पर्क में लाने से बच्चे की शारीरिक स्वस्थता पर कुछ विपरीत परिणाम पड़ सकते हैं।
इस संस्कार को चतुर्थ मास में करने के पीछे यह प्रयोजन भी माना जा सकता है कि प्राचीनकाल में आज के वैज्ञानिक युग के अनुरूप लोगों की सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी । तब बस्तियों के आस-पास जंगल भरा क्षेत्र रहता था, जिसमें हिंसक जीव-जन्तु रहा करते थे । इनके द्वारा उस असहाय एवं अज्ञानी शिशु की रक्षा, खासकर घर से बाहर, अपेक्षा के अनुरूप संभव नहीं हो पाती