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पुंसवन संस्कार विधि का सामान्य स्वरूप ...65
बनता है, इसलिए जिस तरह अच्छी फसल उगाने के लिए भूमि और बीज दोनों का सामर्थ्य आवश्यक है, उसी तरह माता-पिता के शरीर, मन और स्वभाव का परिष्कृत होना आवश्यक है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि जो माता-पिता अपनी सन्तान को प्रारम्भ से ही सुसंस्कारी, सुयोग्य एवं सुविकसित करने में समर्थ न हो, उनकी शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक क्षमता को प्रकट न कर सकते हो, तो उन्हें सन्तान उत्पादन जैसे महान उत्तरदायित्त्व को उठाने के लिए कदम नहीं बढ़ाने चाहिए। यह एक सामाजिक अपराध है। इस अपराध वृत्ति से बचने के लिए माता को प्रतिपल सजग रहना चाहिए।
मनोविज्ञान के अनुसार गर्भकाल में गर्भ धारिणी की मानसिक दशा बच्चे के मन-मस्तिष्क पर विशिष्ट प्रभाव डालती है अत: यह संस्कार सम्पन्न होने के बाद से ही माता का आहार, विहार, व्यवहार आदि संतुलित एवं संयमित होने चाहिए। मनोविज्ञान और शरीर शास्त्र का नियम है-माता का आहार और व्यवहार बच्चे के शरीर और मन पर सीधा प्रभाव डालता है। यदि माता गर्भावस्था के दौरान मिर्च-मसालों से भरे, अति उष्ण-उत्तेजक मसाले, अभक्ष्य पदार्थ खाती हैं, तो उसके बालक का शरीर उसी तरह की उत्तेजनाओं से भर जाता है। ऐसा उत्तेजक-उष्ण आहार ही अक्सर बच्चों को क्रोधी, चिड़चिड़ा, झगड़ालू, जिद्दी स्वभाव का तथा शारीरिक दृष्टि से रक्तविकार, अपच, बवासीर जैसे रोगों से ग्रसित बनाता है, अतएव गर्भिणी का आहार सात्त्विक, हल्का, जल्दी पचने वाला, मिर्च-मसालों से रहित होना चाहिए। इन दिनों ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए। गर्भवती की मनोभूमि इन दिनों ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, भय, चिन्ता, निराशा जैसे मनोभावों से बची रहनी चाहिए। पारिवारिक सदस्यों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे किसी प्रकार का मानसिक क्षोभ न हो। ___गर्भवती को अपने भीतर धैर्य, साहस, आशा, उत्साह के भाव रखने चाहिए। उसे हर समय हँसते-मुस्कराते रहना चाहिए। जो स्त्रियाँ प्रसन्नचित्त रहती हैं, उनके बालक विशेष रूप से सुन्दर एवं हँसमुख होते हैं। जहाँ शयन कक्ष हो, वहाँ आदर्श चारित्र महापुरुषों के चित्र एवं प्रेरणाप्रद शिक्षाएँ देने वाले आदर्श वाक्य टंगे रहने चाहिए। इन दिनों में जब भी यथोचित समय मिले उसे जाप,