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विषय-प्रवेश : ५
की साधना से जोड़ा तो 'यापनीय' को इन्द्रिय और मन की वृत्तियों से । इस प्रकार निर्ग्रन्थ परम्परा में 'यापनीय' शब्द ने एक नया अर्थ लिया।
प्रो० ए० एन० उपाध्ये यहाँ अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि-"नायाधम्मकहाओ ( ज्ञाताधर्मकथा ) में 'इन्दिय-जवणिज्जे' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यापनीय न होकर यमनीय होता है, जो यम् ( नियन्त्रणे ) धातु से बनता है। इसकी तुलना 'थवणिज्जे' शब्द से की जा सकती है जो स्थापनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह 'जवणिज्ज' का सही संस्कृत रूप यापनीय नहीं हो सकता। अतः 'जवणिज्ज' साधु वे हैं जो, यम-याम का जीवन बिताते थे। इस सन्दर्भ में पार्श्व प्रभु के चउज्जाम--चातुर्याम धर्म से यम-याम की तुलना की जा सकती है।"
किन्तु प्रो० ए० एन० उपाध्ये द्वारा 'जवनिज्ज' का यमनीय अर्थ करना उचित नहीं है। यदि उन्होंने विनयपिटक का उपयुक्त प्रसंग देखा होता, जिसमें 'यापनीय' शब्द का जोवनयात्रा के कुशल-क्षेम जानने के सन्दर्भ में स्पष्ट प्रयोग है, तो सम्भवतः वे इस प्रकार का अर्थ नहीं करते । यदि उस युग में इस शब्द का 'यमनीय' के रूप में प्रयोग होता तो फिर पाली साहित्य में यापनीय शब्द का स्पष्ट प्रयोग न मिलकर 'यमनीय' शब्द का हो प्रयोग मिलता। अतः स्पष्ट है कि मूल शब्द 'यापनीय' ही है, यमनीय नहीं है । यद्यपि आगमों में आध्यात्मिक दृष्टि से यापनीय शब्द की व्याख्या करते हुए उसे अवश्य ही मन और इन्द्रिय की नियन्त्रित या संयमित दशा का सूचक माना गया है।
यापनीय शब्द की उपयुक्त व्याख्याओं के अतिरिक्त विद्वानों ने उसकी अन्य व्याख्यायें भी देने का प्रयत्न किया है। मुनि कल्याणविजय जी यापनीय के उपरोक्त अर्थों से सहमत नहीं हैं। वे लिखते हैं कि "कोई-कोई विद्वान् “यापनीय" शब्द का अर्थ निर्वाह करना बताते हैं, जो यथार्थ नहीं है। यापनीय नाम पड़ने का खास कारण उनके गुरुवन्दन में आने वाला "जाव णिज्जाए" शब्द है। निर्ग्रन्थ श्रमण अपने बड़ेरों (ज्येष्ट) को वन्दन करते समय निम्नलिखित पाठ बोलते हैं :
"इच्छामि खमासमणो ! वंदिलं जावणिज्जाए निसीहिआए, अणुजागह मे मि उग्गहं निसीहि।"
१. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६
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