________________
जैनधर्म और तान्त्रिक साधना १६ जैनधर्म, विशेषरूप से महावीर की परम्परा में तन्त्र-मन्त्र की साधना मुनि के लिए सर्वथा वर्जित ही मानी गई थी। प्राचीन जैन आगमों में इसको न केवल हेय दृष्टि से देखा गया, अपितु इस प्रकार की साधना करने वाले को पापश्रमण या पार्श्वस्थ तक कहा गया है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक के सन्दर्भ पूर्व में दिये जा चुके हैं। आगमों में पार्श्वस्थ का तात्पर्य शिथिलाचारी साधु माना जाता है। यद्यपि महावीर की परम्परा ने प्रारम्भ में तन्त्र साधना को कोई स्थान नहीं दिया, किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्व (जिनका जन्म इसी वाराणसी नगरी में हुआ था) की परम्परा के साधु अष्टांगनिमित्त शास्त्र का अध्ययन और विद्याओं की साधना करते थे, ऐसे संकेत जैनागमों में मिलते हैं। यही कारण था कि महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा के साधुओं को पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारी कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। प्राकृत में 'पासत्थ' शब्द के तीन अर्थ होते हैं- १. पाशस्थ अर्थात् पाश में बँधा हुआ २. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व के संघ में स्थित या ३. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व में स्थित अर्थात संयमी जीवन के समीप रहने वाला।
ज्ञाताधर्मकथा जैसे अंग आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम वर्ग में और आवश्यक नियुक्ति, आवश्यकचूर्णि आदि आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में ऐसे अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनमें पार्खापत्य श्रमणों और श्रमणियों के द्वारा अष्टाङ्गनिमित्त एवं मन्त्र-तन्त्र आदि की साधना करने के उल्लेख हैं। आज भी जैन-परम्परा में जो तान्त्रिक साधनाएँ की जाती हैं उनमें आराध्यदेव महावीर न होकर मुख्यतः पार्श्वनाथ अथवा उनकी शासनदेवी पद्मावती ही होती है। जैन तांत्रिक साधनाओं में पार्श्व और पद्वामती की प्रधानता स्वतः ही इस तथ्य का प्रमाण है कि पार्श्व की परम्परा में तांत्रिक साधना की प्रवृत्ति रही होगी। यह माना जाता है कि पार्श्व की परम्परा के ग्रन्थों, जिन्हें 'पूर्व' के नाम से जाना जाता है, में एक विद्यानुप्रवाद पूर्व भी था। यद्यपि वर्तमान में यह ग्रन्थ अप्राप्त है, किन्तु इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो निर्देश उपलब्ध हैं उनसे इतना तो सिद्ध अवश्य होता है कि इसकी विषयवस्तु में विविध विद्याओं की साधना से सम्बन्धित विशिष्ट प्रक्रियाएँ निहित रही होंगी। न केवल पार्श्व की परम्परा के पूर्व साहित्य में अपितु महावीर की परम्परा के आगम साहित्य में भी, विशेषरूप से प्रश्नव्याकरणसूत्र में विविध-विद्याओं की साधना सम्बन्धी सामग्री थी, ऐसी टीकाकार अभयदेव आदि की मान्यता है। यही कारण था कि योग्य अधिकारियों के अभाव में उस विद्या को पढ़ने से कोई साधक चरित्र से भ्रष्ट न हो, इसलिए लगभग सातवीं शताब्दी में उसकी विषयवस्तु को ही बदल दिया गया। यह सत्य है कि महावीर की परम्परा में प्रारम्भ में तन्त्र-मन्त्र और विद्याओं की साधनाओं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org