________________ 20 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जीवों का कर्म से अनादि-काल से सम्बन्ध चला आया है। अलग-अलग समय में अलग-अलग कर्म के पुद्गल जीव के साथ सम्बन्धित होते रहते हैं / पुराने कर्मों का क्षय होता रहता है और नये कर्म संयोजित होते रहते हैं। इस तरह बन्धन की अवस्था में जीव कभी भी कर्म से मुक्त नहीं होता है। संवर और निर्जरा के विधानों के अन्तर्गत प्रतिपादित आचारों से. कर्म का क्षय होता है। ज्यों-ज्यों कर्म का अधिकाधिक क्षय होता जाता है, त्यों-त्यों जीव का स्वाभाविक स्वरूप प्रकट होता जाता है / जब पूर्णतया कर्मक्षय होता है, तब मोक्ष की प्राप्ति होती है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र होता है, परन्तु कर्म का फल भोगने में कर्म के अधीन होता है। 'शुभ करो शुभ होगा', 'अशुभ करो अशुभ होगा' - यही कर्मवाद का सिद्धान्त है। 'आत्मा ही सुख और दुःख उत्पन्न करने और न करने वाला है / आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार से अमित्र है / ' फल देने के लिये कर्म स्वयं शक्तिमान् है / इसके लिये उसे किसी अन्य शक्ति की अपेक्षा नहीं। किसी रहस्यात्मक या ईश्वरीय सत्ता की पराधीनता को जैन धर्म अस्वीकार करता है। शुभाशुभ फल देने की शक्ति कर्म स्वयं रखते हैं / परिवर्तित होना परमाणुओं का स्वयं का गुण है / यह किसी ईश्वर की शक्ति पर अवलम्बित नहीं है / हमारी क्रिया कर्म के परमाणुओं को हमारी आत्मा के साथ जोड़ती है। निरीश्वरवाद - विश्व के अधिकांश धर्मों में एक सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक सत्ता के रूप में ईश्वर की कल्पना की गई है। जैन धर्म में, इसके विपरीत, ईश्वर के अस्तित्व का ही खंड़न किया गया है। हिन्दूधर्म में जगत् के कर्ता एवं रक्षक के रूप में जो एक ईश्वर की कल्पना की गई है, उसका महावीर स्वामी ने सबल युक्तियों के आधार पर खंडन करने का प्रयास किया है / स्याद्वादमञ्जरी आदि परवर्ती जैन दर्शन-ग्रन्थों में ये युक्तियाँ पर्याप्त विस्तार एवं सूक्ष्मता के साथ व्यक्त हुई हैं / जैन दर्शन में विश्व के जड़ और चेतन पदार्थ अनादि और अनन्त माने गये हैं / इनका कोई कर्ता नहीं माना गया है। विश्व का वैचित्र्य कर्मों का फल माने गये है। यद्यपि यहाँ एक सर्वोच्च ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया गया है, परन्तु ईश्वरत्व के गुण को अस्वीकार नहीं किया गया है। कर्म के बन्धन से रहित समस्त जीव ईश्वर माने गये हैं - परिक्षीण सकल कर्मा ईश्वरः / ऐसे जीव वन्दनीय और पूजनीय होते हैं / चौबीस तीर्थङ्करों को इसी रूप में ईश्वर मानकर पूजा जाता है / प्रार्थना-मन्त्र- वैसे तो जैन धर्म में अनेक प्रार्थना-मन्त्र हैं, परन्तु उन सबमें परमेष्टि-मन्त्र सबसे अधिक महत्त्व का माना गया है / यह निम्नलिखित है - णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणम् / णमो ऊवज्झायणं, णमो लोए सव्व साहूणम् // अर्थात्, अर्हतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, जगत् के सभी साधुओं को नमस्कार / इन पाँच परमेष्टियों की स्तुति करने वाला यह मंत्र सर्वपाप-विनाशक और मंगलदायक माना गया है।