Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 169
________________ पज्जमूढा हि परसमया 159 वालों को माता-पिता जानता है, शरीर को रमण कराने वाली स्त्री को रमणी जानता है, स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न पुत्रादि को अपना मानता है, अन्य भी इसी शरीर के ये सम्बन्ध रखने वालों को अपना रिश्तेदार मानता है, शरीर के सुख के बाह्य साधनों को जोड़ने हेतु एड़ी-चोटी का पसीना बहाता है, व्यापार करता है, उसमें अनेक प्रकार के पाप करता है, इस पर्याय सम्बन्धी समस्त क्रियाकलापों को छाती से लगाता है, रिश्तेदारों-मित्रों से सम्बन्ध बनाने और सम्बन्धों को टिकाये रखने में अपना सम्पूर्ण जीवन नष्ट कर देता है, कदाचित् इसमें कोई विघ्न उपस्थित कर दे तो उसे अपना शत्रु मानता है, शत्रुता निभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ता, अपनी जान की बाजी लगाकर भी दुश्मनी निभाता है - और भी जिस-तिस प्रकार से पर्यायमूढ़ता करता है / ___शास्त्रीय भाषा में कहें तो पर्यायमूढ़ता का तात्पर्य है कि इस पर्याय मात्र को ऐकान्तिक श्रद्धान करना, ज्ञान करना और आचरण करना है। पर्याय के प्रति ही समर्पण करना, उसी की रुचि करना, उसी में अहंबुद्धि करना, उसी को अपना मानना, उसी में रमना, जमना और लीन होना; उसके सामने अन्य समस्त वस्तुतत्त्व को तिलांजलि देना शामिल है। पर्याय की मूढ़ता को इसलिए भी निरर्थक कहा जा रहा है, क्योंकि पर्याय का स्वरूप जानने पर हमें उसके यथार्थ का बोध होता है तथा पर्याय के व्यामोह में हम क्या-क्या खो रहे हैं, उसका भी पता चलता है / यह सौदा हमें कितना महंगा सौदा साबित हुआ है, इसका विचार उत्पन्न होता है। हम अपने को ठगा-ठगा-सा महसूस करते हैं; मानो हमने दो पैसे की चीज के लिए अपने करोड़ो रुपये का नुकसान कर दिया हो / यही पर्याय के साथ हुआ है, वह है तो मात्र दो पैसे की चीज, लेकिन हमने उसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है। इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि हमने राई की ओट में पर्वत को तिलांजलि दे रखी है। उक्त बात की सिद्धि में कुछ विचार करते हैं - श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है कि 'द्रव्यदृष्टि' सम्यक् दृष्टि अने पर्यायदृष्टि ते मिथ्यादृष्टि' - ऐसा उन्होंने इसलिए कहा कि द्रव्य-पर्याय की तुलना करने पर पर्याय का अस्तित्व और द्रव्य के अस्तित्व की कोई तुलना ही नहीं है। जैसे द्रव्य अनादि अनन्त है. पर्याय मात्र एक समय की है। द्रव्य तो अनन्त गुण और अनन्त पर्यायों का समुदाय है, जबकि पर्याय उन अनन्तानन्त पर्यायों मात्र में से मात्र एक पर्याय है। द्रव्य तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अनन्तता का धारक है, जबकि पर्याय उन सबकी एक झलक मात्र है, परिणमन मात्र है, परिवर्तन मात्र है / इस प्रकार यद्यपि द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद तो नहीं है, परन्तु उसमें उनके अस्तित्व में अन्तर एक और अनन्त का है। जैसे समुद्र और समुद्र की एक बूंद में जो अन्तर है, वही अन्तर द्रव्य और पर्याय में है। यह उदाहरण भी स्थूल है, हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जो अन्तर समुद्र और उसकी लहर में है, वही अन्तर द्रव्य और उसकी पर्याय में है। क्योंकि लहर आती है, जाती है, लेकिन अपने साथ एक बूंद भी लाती नहीं है, और अपने साथ एक बूंद भी ले जाती नहीं है, उसी प्रकार पर्याय भी द्रव्य का परिवर्तन मात्र है, उससे द्रव्य में एक अंश की भी घटतीबढ़ती नहीं होती है।

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