________________ 162 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि हमें इस पर्यायमूढ़ता से अवश्य दूर रहना चाहिए तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित सर्व पदार्थों की समग्र द्रव्य-गुण-पर्याय-स्वभाव की प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिए। तभी हम पर्यायमूढ़ता-मिथ्यात्व के अभिशापरूप दर्शनमोह से बच सकते हैं। मूलाचार टीका का यह कथन कहकर विराम लेता हूँ - ___"मूढत्वं मोहः परमार्थरूपेन ग्रहणं तद्दर्शनधाति, सम्क्त्वविनाशं ज्ञात्वा तस्मात्तन्मूढत्वं सर्वशक्त्या न कर्त्तव्यम् / "48 "अर्थ - जो मूढता या मोह है, उसे परमार्थरूप से जो ग्रहण करता है, वह दर्शन का घात करने वाला है, - उसे सम्यक्त्व का विनाश जानकर, सर्वशक्ति से इनमें मोह को प्राप्त नहीं होना चाहिए।"४९ संदर्भ 1. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 5, सूत्र 30 (आचार्य उमास्वामी) 2. पं० रामवतार शर्मा, यूरोपीय दर्शन 3. णत्थि णएहि विहूणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि / तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धतिया होंति // __ (आचार्य वीरसेन्-धवला पु०-१, खण्ड 1, भाग 2, गा०६८, पृ०९१) 4. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक 2 (आचार्य अमृतचन्द्र) (श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास) 5. परिक्षामुख सूत्र, पंचम समुदेश, सूत्र 1 (आचार्य माणिक्यनन्दि) रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 4 (आचार्य समन्तभद्र) 7. वही, श्लोक 23 8. वही, श्लोक 24 9. वही, श्लोक 22 10. मूलाचार, पूर्वार्ध, श्लोक 256-260 (आचार्य वट्टकेर) 11. प्रवचनसार, गाथा 93-94 (आचार्य कुन्दकुन्द) 12. प्राकृत हिन्दी कोश, पृ०६६७, सूरशब्द सागर, पृ०४९१, विशाल शब्द सागर, पृ०१११६ 13. संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ०८१० (वामन शिवराम आप्टे) 14. विशाल शब्द सागर, पृ०१११६ (नालन्दा) 15. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ०२५ (पण्डित टोडरमल) 16. परसमयो मिच्छत्तं / (धवला पु०१, पृ०२८, पंक्ति 7) 17. आचार्य जयसेन (पंचास्तिकाय टीका, गाथा 165)