________________ 161 पज्जमूढा हि परसमया शुद्धजीवद्रव्य से भिन्न बताया है, क्योंकि ये सभी भाव पुद्गलद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण पौद्गलिक हैं - ऐसा कहा है / 42 आचार्य कुन्दकुन्द के 'णियभावणा णिमित्तं' बनाये गये नियमसार ग्रन्थ में भी इसी प्रकार की भावना शुद्धभावना अधिकार में पायी गई है / 43 पर्यायमूढ़ता को तोड़ने हेतु आचार्यों ने अनेक मार्ग प्रशस्त किये हैं, कहीं तो उन्होंने सीधे-सीधे शब्दों में पर्याय से अपना सम्बन्ध विच्छेद किया है तथा कहीं-कहीं आत्मा की पर्यायों को आत्मा ही हैं, अतः तुम आत्मा की शरण में जाओ, पर्यायों की शरण में क्यों जाते हो-ऐसा कहकर, उससे दृष्टि को मोड़ा है, इसी प्रकार आत्मानुभूति की प्रक्रिया अपनाते हुए-चिद्विवर्तों की चेतना में ही संक्षेपण करने का उपदेश दिया गया है। समयसार की छठवीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द प्रमत्त और अप्रमत्त पर्यायों से सम्बन्ध विच्छेद कर अपने शुद्धस्वरूप का परिचय निम्न शब्दों में देते हैं - ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो / एवं भणंति सुद्ध णादो जो सो दु सो चेव // 5 अर्थ - जो ज्ञायकभाव है - वह न ही अप्रमत्त है और न प्रमत्त है - इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञेयाकार अवस्था में ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो स्वरूप जानने की अवस्था में भी ज्ञायक ही है। __ हम णमोकार मन्त्र के माध्यम से अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों का ध्यान करते हैं, परन्तु आचार्यदेव ने पर्याय को मोह तुड़ाने के उद्देश्य से पूछा कि वे पंच परमेष्ठी क्या करते हैं ? उत्तर दिया गया कि वे तो अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं तो आचार्यदेव ने अपना निर्णय दिया कि यदि वे अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं तो हम भी अपनी आत्मा का ध्यान क्यों न करें, हम भी अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं / इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चरित्र और सम्यक्तप के सम्बन्ध में भी आचार्य ने अपने विचार प्रकट किये हैं / उक्त विषय का प्रतिपादन करने वाली गाथायें दृष्टव्य हैं - "अरूहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेष्ठी / ते वि हु चिट्ठर्हि आदे तम्हा आदा हु में शरणं // सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्त्वं चेव / चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं // " ___ "अर्थ - अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-पाँच परमेष्ठी हैं, सो ये पाँचों परमेष्ठी भी जिस कारण आत्मा में स्थित हैं, उस कारण आत्मा ही मेरे लिए शरण हो / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप - ये चारों आराधनायें आत्मा में ही स्थित हैं, इसलिए आत्मा ही मुझे शरण है / "47