Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 209
________________ 199 जैन साधना पद्धति : मनोऽनुशासनम् तीसरे प्रकरण का विषय ध्यान की सामग्री को बनाया है / ध्यान की परिभाषा मन को आलम्बन पर टिकाना अथवा योग का निरोध करना ही है / 24 साधना में मन लगा रहे, इसलिए इन्द्रिय जप को आधार बनाकर एकाग्र सन्निवेश की सामग्री के रूप में ऊनोदरिका, रसपरित्याग, उपवास, स्थान, मौन, प्रतिसंलीनता, भावना, व्युत्सर्ग आदि का समावेश कर दिया गया / 25 यह आचार्य की अपनी उद्भावना है। इतना ही नहीं, उन्होंने स्थान (आसान) को भी तीन भागों में विभक्त किया है - ऊर्ध्व, निषीदन और शयन के रूप में और इन्हीं के अन्तर्गत योग वर्णित आसनों का वर्णन किया है / (6) इसी प्रकरण में ध्यान की समग्र सामग्रियों की परिभाषा एवं उसकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। इसी क्रम में प्रतिसंलीनता का विवेचन किया है, जो योग के प्रत्याहार के समकक्ष प्रतीत होती है। जो जैनयोग का अपना पारिभाषिक शब्द है - जिसका भाव है, अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना है। दूसरे शब्दों में स्व को अप्रशस्त से हटा प्रशस्त की ओर प्रयाण करना है। इसके चार भेद हैं२६ - (1) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता (2) मन-प्रतिसंलीनता (3) कषाय प्रतिसंलीनता और (4) उपकरण प्रतिसंलीनता / आचार्य तुलसी ने - "इन्द्रिय-कषाय-निग्रहो - विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता"२७ लक्षण किया है, जिसके अनुसार तीन रूप हैं / मन का अन्तर्भाव इन्द्रिय में कर दिया और उपकरण विविक्तवास का ही रूप हैं / इन्द्रियनिग्रह के उपाय के रूप में द्वादश भावना२८ और मैत्री - प्रमोद - करुणा - मध्यस्था आदि चार भावना का२९, कषायनिग्रह के लिए व्युत्सर्ग का निरूपण किया है। द्वादश भावना और व्युत्सर्ग जैन धर्म की अपनी विशेषता है / व्युत्सर्ग का आचार्य श्री ने विशेष विवेचन किया है। (7) चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यानस्थल, ध्यान के भेद, धारणा, प्रेक्षा का विवेचन किया / जहाँ पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र३२ और श्री नागसेनमुनि ने धारणा के पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी और तात्त्विकी (तत्त्वभू) के भेद से पाँच प्रकार माने, वहीं आचार्य ने धारणा के चार प्रकार ही माने / 34 धारणा के बाद समाधि५ का विवेचन भी आचार्य ने इसी प्रकरण में कर दिया और लेश्या से अभिन्न बताया है। (8) पंचम प्रकरण में प्राणायाम का 27 सूत्रों में विशद विवेचन किया जो उसके महत्त्व का सूचक है, जिसे जैनाचार्यों ने भी स्वीकार किया है। इस प्रकरण में जिस कुशलता से आचार्य ने प्राणायाम के प्रकार, वर्ण स्थान, ध्वनि बीज, किस स्थान पर निरोध से क्या लाभ होता है ? आदि का विवेचन किया वह अपने आप में विशिष्ट हैं / प्राणायाम के लिए एक स्वतंत्र प्रकरण का प्रणयन इस बात को द्योतक है कि योगांगों में उसका कितना महत्त्व है / आचार्य तुलसी की दृष्टि में चित्त (मन) प्राणायाम से ही स्थिर होता है / 37 (9) षष्ठ प्रकरण में योगांगों में यम के नाम से प्रसिद्ध पञ्चमहाव्रतों३८ की मीमांसा की गई है।

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