Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 186
________________ 176 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा 93. विभाव अर्थ पर्याय कितने प्रकार की होती हैं ? दो प्रकार की-गुण की शक्ति घट जाना तथा गुण विकृत हो जाना / 94. शक्ति घट जाने से क्या समझे ? जिस पर्याय में गुण की कुछ शक्ति व्यक्त रहे और कुछ अव्यक्त / जैसे घनाच्छादि सूर्य प्रकाश की कुछ शक्ति व्यक्त होती है और शेष ढकी रहती है ऐसे ही संसारी जीव के मति ज्ञानादि में व अल्प वीर्य में कुछ मात्र ही शक्ति व्यक्त होती है, शेष नहीं / 95. विकृत गुण से क्या समझे ? जिस पर्याय में गुण की शक्ति विपरीत दिशा में व्यक्त हो / जैसे दूध सड़ जाने की भाँति जीव के सम्यक्त्व व चारित्र गुण विकृत होकर, आनन्दरूप से व्यक्त होने की बजाय मिथ्यात्व व व्याकुलता रूप बन जाते हैं। क्या आम्रफल की व्यञ्जन पर्याय उसके ऊपरी आकार में ही होती है ? नहीं, व्यञ्जन पर्याय प्रदेशों की घनाकार रचना को कहते हैं, जो भीतर व बाहर सर्वत्र रहती है। 97. स्वभाव व्यञ्जन पर्याय के साथ विभाव अर्थ पर्याय रहे ऐसा द्रव्य कौन ? ऐसा कोई द्रव्य सम्भव नहीं; क्योंकि व्यञ्जन पर्याय शुद्ध होने पर तो सभी पर्याय अवश्य शुद्ध ही होती हैं। 98. विभाव व्यञ्जन पर्याय के साथ स्वभाव अर्थ पर्यायें रहें, ऐसा द्रव्य कौन सा ? सम्यग्दृष्टि जीव अथवा अर्हन्त भगवान, इन दोनों की व्यञ्जन पर्याय विभाविक है, पर सम्यग्दृष्टि का एक सम्यक्त्व गुण और अर्हन्त भगवान के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य आदि अनेक गुणों की स्वाभाविक पर्याय होती है। संदर्भ . "जैन सिद्धान्त सूत्र" से साभार उद्धृत "जैन सिद्धान्त सूत्र" की लेखिका परमपूज्या ब्र.कु.कौशल जी है। इसका प्रकाशन आचार्य देश भूषण ट्रस्ट, 417 कूचा बुलाकी बेगम, दिल्ली-११०००६ से सन् 1976 ई.में हुआ है / ग्रंथ के महत्त्व को देखते हुए इसके पृष्ठ 150 से 163 तक यहाँ उद्धृत हैं। इसकी अनुमति प्राप्ति के लिये डॉ. वीरसागर जैन के हम आभारी हैं। हम विदुषी लेखिका के भी कृतज्ञ हैं, जिन्होंने बड़े सरल और स्पष्ट रुप से 'पर्याय' के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला

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