Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा करता है कि तीनों क्षणों की एक अविच्छिन्न कार्य-कारण परम्परा है / वह न बिल्कुल स्थायी नित्य है और न इतना विलक्षण परिणमन करने वाला है कि उसकी प्रतीति ही न हो / बौद्धधर्म में प्रज्ञप्त्यर्थ कल्पित है, भ्रमजनित है, अतः व्यावहारिक धर्म है तथा परमार्थ को वास्तविक धर्म की संज्ञा दी गई है। वहाँ वस्तु सत् को संस्कृत धर्म और असंस्कृत धर्म के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है / हीनयान में संस्कृत धर्म वस्तु सत् है, पर महायान उसे शून्य कहता है / महायान में धर्म शून्य है, केवल धर्मता (धर्मकाय) वस्तु सत् है / क्षणिक संस्कृत धर्म के अतिरिक्त हीनयान में आकाश और निर्वाण को असंस्कृत धर्म कहा गया है। यहाँ संसार और निर्वाण दोनों वस्तु सत् हैं और प्रज्ञप्ति सत् भी हैं / महायान में वस्तु को शान्त, अद्वय, अवाच्य, विकल्पातीत और निष्प्रपञ्च कहा गया है। उसकी दृष्टि से जो परतन्त्र है, वह वस्तु नहीं है / अतः संस्कृत-असंस्कृत पदार्थ वस्तु सत् नहीं है / वे तो शून्यता के प्रतीक हैं / इस प्रकार हीनयान का बहुधर्मवाद महायान में अद्वयवाद बनकर आया है। रूप के लक्षण के प्रसंग में बौद्धधर्म में उसे उपचय (उत्पाद), सन्तति, जरता (स्थिति) एवं अनित्यतामय माना है (अभिधम्मत्थसंगहो, 6.15) / इसी को अहेतुक, संप्रत्यय, सास्रव, संस्कृत, लौकिक, कामावचर, अनालम्बन और अप्रहातव्य कहा है (वही, 6.19) / उपचय एवं सन्तति उत्पत्ति का प्रतीक है, जरता स्थिति का और अनित्यता भंग का प्रतीक है / यहाँ सम्बद्ध बुद्धि को 'सन्तति' कहा गया है, जिसका सम्बन्ध उत्पत्ति के साथ अधिक है / उत्पत्ति के बाद निष्पन्न रूपों के निरुद्ध होने से पूर्व 48 क्षुद्रक्षण मात्र के स्थिति काल को जीर्ण स्वभाव होने से जरता कहा जाता है / प्रत्येक क्षण में उत्पाद, स्थिति और भंग नामक तीन क्षुद्रक्षण होते हैं / रूप का एक क्षण चितर्वाथि के 17 क्षणों के बराबर होता है। इन-इन 17 क्षणों में भी क्षुद्रक्षण 51 होते हैं, जिनके बराबर रुप का एक क्षण होता है / 51 क्षुद्रक्षणों में से सर्वप्रथम उत्पादक्षण को और अंतिम भंगक्षण को निकाल देने पर चित्त के 48 क्षुद्रक्षण के बराबर रूप की जरता का काल होता है / एक चित्त-क्षण में ये उत्पाद-स्थिति-भंग इतनी शीघ्रता पूर्वक प्रवृत्त होते हैं कि एक अच्छरा काल (चुटकी मारने या पलक मारने के बराबर समय) में ये लाखों करोड़ों बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाते हैं। इन उत्पाद-व्यय-भंग स्वभावी रूपों को 'संस्कृत' कहा जाता संस्कृत पदार्थ में परिवर्तन की शीघ्रता अन्वय की भ्रान्ति पैदा करती है / उसे ही अन्वयवशात् स्थायी कह देते हैं / वस्तुतः प्राणी का जीवन विचार के एक क्षण तक रहता है / उस क्षण के समाप्त होते ही प्राणी भी समाप्त हो जाता है। विशुद्धिमग्ग में इसे भेदवाद कहते हैं / वैभाषिक-सौत्रान्तिक भेदवादी हैं / क्षणभंगवाद उनका परम सत्य है / वे धर्म नैरात्म्य (बाह्य पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओं का पुंज है और पुद्गलनैरात्म्य (अनात्मवाद) को मानते हैं / सारा व्यवहार सन्ततिवाद और संघातवाद पर आश्रित है। संस्कृत पदार्थ प्रतीत्य-समुत्पन्न और अनित्य है / जिस पदार्थ का समुत्पाद सकारण होता है, वही स्वतन्त्र नहीं है। अतः मध्यान्तिकवादियों ने पदार्थ को शून्यात्मक कहा है (चतुःशतक, 348) / सूत्रान्त पालि में "जरा मरणं भिक्खवे ! अनिच्चं, सङ्कमं पटिच्च समुप्पन्नं" (संयुक्त निकाय, भाग 2,1,24) संस्कृत के तीन ही लक्षण दिये हैं / यहाँ स्थिति का कोई उल्लेख नहीं / सौत्रान्तिकों की दृष्टि में संस्कृत के लक्षण चार ही हैं। उन्होंने 'जरा' के साथ 'स्थिति' को प्रज्ञप्त किया है। वे वस्तुतः

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214