________________ 184 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा समाहित है / सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय का निर्णय ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख होकर ही होता है / ज्ञायकस्वभाव की सन्मुखता ही मुक्ति महल की प्रथम सीढ़ी है; उस पर आरोहण का अनन्त पुरुषार्थ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में समाहित है / इस प्रकार 'सर्वज्ञता' और 'कर्मबद्धपर्याय' एक प्रकार से परस्परानुबद्ध है। एक का निर्णय (सच्ची समझ) दूसरे के निर्णय के साथ जुड़ा हुआ है। दोनों का ही निर्णय सर्वज्ञस्वभावी निज आत्म के सन्मुख होकर होता है। यदि कोई व्यक्ति परोन्मुखी वृत्ति द्वारा 'सर्वज्ञता' या 'क्रमबद्धपर्याय' का निर्णय करने का यत्न करे तो वह कभी सफल नहीं होगा / सर्वज्ञता के निर्णय से, क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से मति व्यवस्थित हो जाती है, कर्तृत्व का अहंकार गल जाता है, सहज ज्ञातादृष्टापने का पुरुषार्थ जागृत होता है, पर में फेर-फार करने की बुद्धि समाप्त हो जाती है; इस कारण तत्सम्बन्धी आकुलता-व्याकुलता भी चली जाती है, अतीन्द्रिय आनन्द प्रकट होने के साथ-साथ अनन्त शांति का अनुभव होता है। सर्वज्ञता के निर्णय और क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से इतने लाभ तो तत्काल प्राप्त होते हैं / इसके पश्चात् जब वही आत्मा, आत्मा के आश्रय से वीतराग-परिणति की वृद्धि करता जाता है, तब एक समय वह भी आता है कि जब वह पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता को स्वयं प्राप्त कर लेता है / आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है / इस विषय की विशेष जानकारी के लिए लेखक की 'क्रमबद्धपर्याय' नामक कृति का गहरा अध्ययन अपेक्षित है / सभी प्राणी 'क्रमबद्धपर्याय' और 'सर्वज्ञता' का सही स्वरूप समझकर स्वभावसन्मुख हों और अनन्त शांति व अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करें, कालान्तर में यथासमय सर्वज्ञता को प्राप्त कर परम सुखी हों-इस भावना के साथ विराम लेता हूँ। संदर्भ 1. आचार्य रविषेण : पद्मपुराण, सर्ग 110 श्लोक 40 2. भैया भगवतीदास : अध्यात्मपद संग्रह, पृष्ठ 81 3. बुधजन : अध्यात्मपद संग्रह, पृष्ठ 79 आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०१, सूत्र 29 5. प्रवचनसार, गाथा 39 जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग 2, पृष्ठ 151 7. प्रवचनसार, गाथा 200 की तत्त्वप्रदीपिका टीका 8. वही, गाथा 47 की तत्त्वप्रदीपिका टीका 9. कविवर वृन्दावन कृत चन्द्रप्रभ पूजन, जयमाल 10. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 2, पृष्ठ 614