Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 187
________________ क्रमबद्धपर्याय हुकमचन्द भारिल्ल आचार्य कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध ग्रंथराज समयसार की गाथा 308 से 311 तक की आत्मख्याति नामक टीका में आचार्य अमृतचंद्र लिखते हैं - "जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीव; एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव, न जीवः / प्रथम तो जीव क्रमनियमित (क्रमबद्ध) ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसी प्रकार अजीव भी क्रमनियमित (क्रमबद्ध) अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं / " __ यहाँ समस्त जीवों और अजीवों के परिणमन को क्रमनियमित अर्थात् क्रमबद्ध कहा गया है। जीव और अजीव के अतिरिक्त जगत् में और है ही क्या ? जीव और अजीव द्रव्यों के समूह का नाम ही तो विश्व अर्थात् जगत् है। इस प्रकार समस्त जगत् का परिणमन ही क्रमनियमित अर्थात् क्रमबद्ध कहा गया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ मात्र यह नहीं कहा गया है कि पर्यायें क्रम में होती हैं, अपितु यह भी कहा गया है कि वे नियमित क्रम में होती हैं / आशय यह है कि 'जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में, जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थपूर्वक, जैसी होनी है; उस द्रव्य की, वह पर्याय, उसी काल में, उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थपूर्वक वैसे ही होती है; अन्यथा नहीं' - यह नियम है / जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है - "जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि / णादं जिणेण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा // 321 // तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि / को सक्कदि वारे, इंदो वा तह जिणिदो वा // 322 //

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