Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 167
________________ पज्जमूढा हि परसमया 157 का कोई छोटा सा चमचा (कार्यकर्ता) हाथ लग गया हो तो हमें क्या करना चाहिए, उसे ही अपराधी मानकर सजा-ए-मौत दे देनी चाहिए या उसके अन्य साथियों तथा उसके लीडर को पकड़ना चाहिए। यदि हम उस कार्यकर्ता को ही समाप्त कर देते हैं तो हम उस एकमात्र सूत्र को भी खत्म कर देते हैं, जो हमें बड़े गिरोह का भण्डाफोड़ करने में सहायक हो सकता था। उसी प्रकार द्रव्य या गुण तक पहुँचने के लिए पर्याय ही वह जरिया (माध्यम) है, जो हमें द्रव्य गुण से मिलवा सकता है या उनका परिचय करवा सकता है। __ हमें पर्याय जानने के लिए पर्याय को नहीं जानना है, बल्कि द्रव्य और गुणों को जानने के लिए पर्याय को जानना है। जो पर्याय जानने के लिए पर्याय को जानते हैं, उन्हें ही पर्यायमूढ कहा है, क्योंकि उनकी वहीं इतिश्री हो जाती है। तथा जो द्रव्यस्वभाव तक पहुँचने के लिए पर्याय को जानते हैं, वे मूढ़ नहीं, ज्ञानी हैं / जैसे जीववस्तु को जानने के लिए 'उपयोगोलक्षणम्' कहा गया है, उपयोग के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप भेद तथा उसके भी आठ और चार प्रकार के भेद पर्यायरूप ही हैं, अतः हम ज्ञानोपयोग-पर्याय से ज्ञानगुण समझते हैं, पश्चात् ज्ञान गुण को आधार बनाकर चेतनस्वरूप जीव तक पहुंचते हैं, वही विधि मूल जीववस्तु तक पहुँचने की है। मूल जीववस्तु अव्यक्त होने के कारण ही उसे अलिंगग्रहण कहा गया है / 39 इस प्रकार हम देखते हैं कि द्रव्य-गुण-पर्याय में द्रव्य अव्यक्त है, पर्याय व्यक्त है और गुण बीच की कड़ी होने से व्यक्ताव्यक्त है / पर्याय की अपेक्षा गुण अव्यक्त है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा गुण व्यक्त है, इसी कारण उसे व्यक्ताव्यक्त कहा जा रहा है। द्रव्य अनन्तगुणात्मक है, अतः उसकी अनन्तता उसे अव्यक्त बनाती है, जबकि एक गुण द्रव्य की तुलना में व्यक्त है। इसी प्रकार एक गुण में भी अनन्त पर्यायें शक्ति रूप से हैं, अतः वह भी अनन्तता युक्त होने से अव्यक्त है, जबकि एकपर्याय गुण की तुलना में व्यक्त है। यद्यपि एक समय की सूक्ष्म पर्याय भी हमारे स्थूल क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा गोचर नहीं होने से वह भी अव्यक्त ही है, तथा असंख्यात समय प्रमाणवाली स्थूल पर्यायें ही हमारे क्षयोपशमज्ञान के द्वारा ज्ञात होती है। वास्तव में हमने आज तक शुद्ध द्रव्य या शुद्ध गुण शुद्ध पर्याय को तो देखा ही नहीं है, क्योंकि वे आँखों के द्वारा या इन्द्रियों के द्वारा गोचर ही नहीं हैं। अनादिकाल से हमने इन्द्रियों को ही प्रमाण मान रखा है, इस कारण इनके द्वारा जो कुछ दिखाई देता है,उसे ही प्रमाण मानते हैं / जीव में सिद्धजीव के द्रव्यगुण-पर्याय शुद्ध हैं, पुद्गल में सूक्ष्म परमाणु के द्रव्य-गुण-पर्याय शुद्ध हैं, शेष धर्मादि द्रव्यों के तो सभी द्रव्य-गुण-पर्याय शुद्ध हैं, लेकिन हमने आज तक इन्हें कभी देखा नहीं है, अतः शुद्ध द्रव्यगुण-पर्याय क्या वस्तु है, इसके बारे में मन सम्बन्धी श्रुतज्ञान का भी प्रयोग कभी नहीं किया है, जिसके द्वारा शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय जाने जा सकते हैं। आज तक हमने या तो पौद्गलिक जगत् के स्थूल स्कन्धरूप परिणमनों को देखा है या जीव-पुद्गलात्मक असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायों को देखा है, अतः हमने इन्हें ही जीव मान लिया है, इनमें ही एकत्व-ममत्व स्थापित कर लिया है, यही जीव की सबसे बड़ी भूल है, अतः इसे ही मिथ्यात्व कहा गया है / इस जीव में पर्याय मूढ़ता के संस्कार इतने गहरे हैं कि यह जीव जिस पर्याय में जाता है, उसे ही अपना मानने लगता है, यहाँ तक कि पूर्व की पर्यायों को भूल जाता है, मात्र वर्तमान पर्याय में ही तन्मय रहता है / 40

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