________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा दही, छाछ, घी कहाँ से उत्पन्न होगा / इसी प्रकार द्रव्य के बिना परिणाम नहीं हो सकता / इस प्रकार जो द्रव्य, गुण, पर्याय में स्थित है, वह पदार्थ है / परिणामः पर्याय - परिणाम (पर्याय) के बिना द्रव्य नहीं होता है / जिसमें द्रव्य, गुण, पर्याय की एकता है, उसमें द्रव्य का अस्तित्व है। जो इन तीनों में से एक भी कम है, वह द्रव्य नहीं हो सकता। जैसे स्वर्ण द्रव्य है, उसमें पीतादि गुण हैं और कुण्डल आदि पर्याय हैं / ये गुण और पुर्याय द्रव्य के ही आत्मस्वरूप हैं / इसलिए ये किसी भी दशा में द्रव्य से पृथक् नहीं होते / द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते हैं, जो बतलाता है कि द्रव्य सदा एक-सा कायम न रहकर प्रतिक्षण बदलता रहता है। जिसके कारण द्रव्य सजातीय से मिलते हुए और विजातीय से भिन्न प्रतीत होते हैं, वे गुण कहलाते हैं / ये गुण ही अनुवृत्ति और व्यावृत्ति के साधन होते हैं / 13" यह पहले ही कह आये हैं कि “पर्याय" का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है / ध्रुव अन्वयी या सहभूत तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं / अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं / वे गुण के विशेष परिणमन रूप होती हैं / अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है।" इतना विशेष है कि जैसा द्रव्य होता है, वैसे ही गुण पर्याय होते हैं। यदि द्रव्य स्वर्ण है, तो उसमें स्वर्ण का गुण और पर्याय कड़ा, कुण्डल आदि परिणाम होगा और यदि द्रव्य मिट्टी होगी तो गुण और परिणाम घट, सकोरा आदि मृत्तिकारूप होगा / एक समय का सत् पर्याय एक समय का सत् है / जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है, वह सत् है। ये तीनों एक सत् के ही अंश हैं / यदि पदार्थ को सर्वथा कूटस्थ नित्य माना जाए तो बीज से वृक्ष तक की परिणमित होने वाली विभिन्न उत्पद्यमान और नाशवान अवस्थाओं के अभाव का प्रसंग आएगा। परन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि आगामी पर्याय का उत्पाद, पूर्व पर्याय का व्यय, मूल वस्तु की स्थिरता (ध्रुवता) इन तीनों की एकता ही द्रव्य का लक्षण है / द्रव्य के गुण-पर्याय रूप परिणमन को स्वभाव कहते हैं, जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सहित है। जैसे एक द्रव्य के चौड़ाई रूप सूक्ष्मप्रदेश अनेक हैं, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों की परिणति के प्रवाहक्रम से लम्बाईरूप सूक्ष्मपरिणाम भी अनेक हैं / द्रव्यों की चौड़ाई प्रदेश है और लम्बाई परिणति है। प्रदेश सदा काल स्थायी है, इसलिए वह चौड़ाई है और परिणति प्रवाह रूप क्रम से है, इसलिए लम्बाई है / जैसे द्रव्य के प्रदेश पृथक्-पृथक् हैं, उसी प्रकार तीन काल सम्बन्धी परिणाम भी अलग-अलग हैं / एक द्रव्य अपने सम्पूर्ण प्रदेशों में है, इस अपेक्षा से न उत्पन्न होता है, न नाश होता है, ध्रुव है / अतः प्रदेश उत्पाद, व्यय और ध्रुवता को धारण किए हुए हैं। इसी प्रकार परिणाम अपने काल में पूर्व से उत्तर परिणामों की अपेक्षा उत्पाद-स्वरूप है, सदा एक परिणतिप्रवाह की अपेक्षा ध्रुव है / इस कारण परिणाम भी उत्पाद-व्यय-ध्रुवता संयुक्त है / यह भी ध्यान देने योग्य है कि व्यय रहित उत्पाद नहीं होता और उत्पाद रहित व्यय नहीं होता एवं उत्पाद तथा व्यय ये दोनों नित्य