________________ जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप किन्तु इनमें से स्वभाव-विभाव, द्रव्य-गुण और अर्थ-व्यञ्जन के तीन भेदयुगलों की ही शास्त्रों में विशेष विवक्षा दिखाई पड़ती है / इनको भी हम सामान्यतः इस प्रकार कह सकते हैं कि पर्याय के मूल भेद दो हैं :- स्वभावपर्याय एवं विभावपर्याय / फिर इन दोनों के दो-दो प्रभेद हैं - द्रव्यपर्याय एवं गुणपर्याय / द्रव्यपर्याय का अपर नाम व्यञ्जनपर्याय है और गुणपर्याय का अपर नाम अर्थपर्याय है / यहाँ हम 'द्रव्यपर्याय का अपर नाम व्यञ्जनपर्याय है और गुणपर्याय का अपर नाम अर्थपर्याय है' - इस कथन की पुष्टि हेतु निम्नलिखित शास्त्रों के उद्धरण प्रस्तुत करना आवश्यक समझते हैं : (1) "वंजणपज्जायस्स दव्वत्तमुवगमादो / "17 अर्थ :- व्यञ्जनपर्याय के द्रव्यपना स्वीकार किया गया है / "अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैव्यपर्यायाणां हि / " / व्यञ्जनपर्याया इति केचिन्नामान्तरे वदंति बुधाः // "18 अर्थ :- कुछ विद्वान द्रव्यपर्यायों का ही दूसरा नाम व्यञ्जनपर्याय भी कहते हैं / (2) "गुणपर्यायणामिह केचिन्नामान्तरं वदन्ति बुधाः / अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थपर्याया इति च // "19 अर्थ :- कुछ विद्वान अर्थ और गुण दोनों के एकार्थवाची होने के कारण गुणपर्याय को ही अर्थपर्याय भी कहते हैं। पर्याय के उक्त सभी भेदों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैं :(क) स्वभावपर्याय एवं विभाव पर्याय - स्वभावपर्याय सभी द्रव्यों एवं सभी गुणों में होती है, किन्तु विभावपर्याय कतिपय द्रव्यों (मात्र जीव एवं पुद्गल द्रव्यों) और उन्हीं के कतिपय गुणों में ही होती है / 20 ___ द्रव्य या गुण की स्वाभाविक अवस्था को स्वभावपर्याय कहते हैं और स्वभाव से विपरीत अवस्था को विभावपर्याय कहते हैं / उदाहरणार्थ सिद्ध अवस्था, केवलज्ञान, परमाणु आदि स्वभावपर्यायें हैं और मतिज्ञान, स्कन्ध आदि विभावपर्यायें हैं / (ख) द्रव्यपर्याय एवं गुणपर्याय - द्रव्यों में होने वाले परिणमन को द्रव्यपर्याय कहते हैं और गुणों में होने वाले परिणमन को गुणपर्याय कहते हैं / यथा सिद्ध, मनुष्य, स्कन्ध आदि द्रव्यपर्यायें हैं और केवलज्ञान, मतिज्ञान, काला, पीला आदि गुणपर्यायें हैं।