________________ 122 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा में पहचाना तो जाता है, परन्तु वही पुरुष एक की अपेक्षा लम्बा और दूसरे की अपेक्षा छोटा या मोटा, दुबला आदि कैसे घटित होगा इस विषमता को प्रतिभास या कल्पना भी नहीं कहा जा सकता है / आगमों में भी एक परमाणु का दूसरे परमाणु का अनन्तगुणा भेद वर्णित है / इसी प्रकार वर्ण, रस, गन्ध आदि के अवान्तर भेदों में षड्गुण हानि-वृद्धि की दृष्टि तारतम्य निरूपित है, अतः यह मात्र कल्पना या आरोपण नहीं है / इस प्रकार द्रव्य और गुणों के बीच एकान्त भेद या अभेद न मानकर भेदाभेद ही मानना चाहिए। गुण और पर्याय : एकार्थक या भिन्नार्थक यहाँ यह एक विचारणीय प्रश्न है कि गुण और पर्याय एकार्थक है या भिन्नात्मक / उत्तराध्ययन सूत्र में द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों का स्वतन्त्र लक्षण निरूपित है८ / उमास्वाति, कुन्दकुन्द और पूज्यपाद ने द्रव्य और गुण तथा गुण और पर्याय में अर्थभेद बताया है / अर्थ कहने से द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों का ग्रहण होता है / सिद्धसेन दिवाकर ने गुण और पर्याय का अभेदपक्ष स्वीकार किया है। उन्होंने द्रव्य और पर्याय इन दो को ही मान्य किया है। उनका यह विचार आगम सम्मत है - दो उण णया भगवया दव्वठ्यि-पज्जवाट्ठिया नियमा / एत्तो य गुणविसेसे गुणट्ठियणओ वि जुज्जंतो / जं पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं / पज्जवसण्णा णियमा वागरिया तेण पज्जाया // 9 अर्थात् भगवान ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही नय निश्चित किये हैं। यदि पर्याय से भिन्न गुण होता तो गुणार्थिक नय भी उन्हें निश्चित करना चाहिए था / चूँकि अर्हतों ने उन-उन सूत्रों में गौतम आदि के समक्ष पर्याय संज्ञा निश्चित करके उसी का विवेचन किया है, अतः पर्याय से भिन्न गुण नहीं है / ध्यातव्य है कि पर्यायाथिक नय से भिन्न गुणार्थिक नय की उद्भावना करते हुए गुण का निरास तथा गुण और पर्याय में अभेद प्रस्थापना का सर्वप्रथम प्रयास सिद्धसेन ने किया है / अकलंक और विद्यानन्दी ने भेद-अभेद दोनों पक्षों को स्वीकार किया है। अकलंक ने 'गुणपर्यायवद्रव्यम्' की परिभाषा में लिखा है कि गुण ही पर्याय है, क्योंकि गुण और पर्याय दोनों में समानाधिकरण्य है / प्रश्न हो सकता है कि गुण और पर्याय जब एकार्थक हैं तो 'गुणवत्द्रव्यम्' या 'पर्यायवद्रव्यम्' ऐसा निर्देश होना चाहिए था - गुणपर्यायवद्र्व्यम् क्यों / इसका समाधान करते हुए वार्तिककार लिखते हैं कि वस्तुतः द्रव्य से भिन्न गुण उपलब्ध नहीं होते। द्रव्य का परिणमन ही पर्याय है और गुण उसी परिणमन की एक अभिव्यक्ति है। तत्त्वतः गुण और पर्याय में अभेद है / द्रव्य और पर्याय का भेदाभेदवाद द्रव्य में गुण और पर्याय दोनों रहते हैं / गुण का अर्थ है-सहभावी धर्म या हमेशा रहने वाले धर्म तथा पर्याय का अर्थ है क्रमभावी धर्म या परिवर्तन को प्राप्त होते रहने वाले धर्म / सिद्धसेन ने आगमिक संदर्भो के आधार पर गुण और पर्याय के द्वैत का निराकरण कर दोनों की एकार्थता सिद्ध की / अब जब गुण और पर्याय एक हैं तो द्रव्य और पर्याय का क्या संबन्ध है, यह प्रश्न विचारणीय है /