________________ जैन दर्शन में पर्याय 143 अनित्यता दोनों निवास करती हैं / एकान्ततः नित्य वस्तु भी कभी सत् नहीं हो सकती और एकान्ततः अनित्य वस्तु भी कभी सत् नहीं हो सकती / क्योंकि सत् का लक्षण ही यह है - "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / " अर्थात् जिसमें प्रतिसमय उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता पाई जाती है, वही सत् है। जिस प्रकार सोने (सुवर्ण) से हार बनाते समय सोने की पिण्डरूप पर्याय नष्ट होती है, हार पर्याय उत्पन्न होती है और सोना कायम रहता है। ऐसा नहीं है कि पिण्ड पर्याय का नाश पृथक् समय में होता है और हार पर्याय की उत्पत्ति पृथक् समय में होती है; किन्तु जो समय पहली पर्याय के नाश का है, वही समय आगे की पर्याय के उत्पाद का है / इस प्रकार प्रतिसमय पूर्व पर्याय का नाश और आगे की पर्याय की उत्पत्ति के होते हुए भी द्रव्य कायम रहता है। अतः वस्तु प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कही जाती है / आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है कि - "उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया / दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं // "2 ___ अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं, और पर्याय नियम से द्रव्य में ही होती हैं, इसलिए यह सब द्रव्य ही है / "समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदढेहिं / एकम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं // "3 अर्थात् द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, स्थिति और नाश नामक अर्थों के साथ वास्तव में एकमेक है, इसलिए यह तीन का समुदाय (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) वास्तव में द्रव्य है / "पाडुब्भवदि य अण्णे पज्जाओ पज्जाओ वयदि अण्णो / दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणटुं ण उप्पण्णं // "4 अर्थात् द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट होती है, फिर भी द्रव्य न तो नष्ट होता है, न उत्पन्न होता है अर्थात् ध्रुव रहता है / जैनदर्शन के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन महर्षि पतञ्जलि ने भी अपने महाभाष्य के पश्पशाह्निक में निम्नलिखित शब्दों में किया है - "द्रव्यं नित्यम्, आकृतिरनित्या / सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते / पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाऽऽकृत्या युक्तः खादिरांगारसदृशे कुण्डलं भवतः / आकृतिरन्या च अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते / "