________________ पज्जमूढा हि परसमया 153 उक्त समस्त शंकाओं का समाधान आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार गाथा 94 की टीका में अत्यन्त स्पष्टता के साथ दिया है / यदि हम उसका गहराई से अवलोकन करें तो सारी शंकायें निरस्त हो सकती हैं / वे लिखते हैं - "जो जीव-पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्याय का - जो कि सकल अविद्याओं का एक मूल है, उसका आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना करने में नपुंसक होने से उसी में बल धारण करते हैं, जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है - ऐसे वे 'यह मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह मनुष्य शरीर है' - इस प्रकार अहंकार-ममकार से ठगाये जाते हुए, अतिचलित चेतना विलासमात्र आत्म-व्यवहार से च्युत होकर, जिसमें रागरत कौटुम्बिक क्रिया-कलाप को छाती से लगाया जाता है-ऐसे मनुष्य-व्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होते हुए, परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं। तथा जो असंकीर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों से सुरक्षित भगवान आत्मा के स्वभाव का, जो कि सकल विद्याओं का एक मूल है, उसका-आश्रय करके, यथोक्त आत्म-स्वभाव की संभावना में समर्थ होने से पर्यायमात्र के प्रति बल को दूर करके, आत्मा के स्वभाव में ही स्थिति करते हैं, लीन होते हैं, वे, जिन्होंने सहज-विकसित अनेकान्त दृष्टि से समस्त एकान्त दृष्टि के परिग्रह के आग्रह प्रक्षीण कर दिये हैं, ऐसेमनुष्यादि गतियों में और उन गतियों के शरीरों में अहंकार-ममकार न करके, अनेक कक्षों (कमरों) में संचारित रत्न-दीपक की भाँति एकरूप ही आत्मा को उपलब्ध (अनुभव) करते हुए, अविचलित चेतनाविलास मात्र आत्म-व्यवहार को अंगीकार करके, जिसमें समस्त कौटुम्बिक क्रिया-कलाप से भेंट की जाती है-ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय नहीं करते हुए, राग-द्वेष का उन्मेष (प्रगटपना) रुक जाने से परम उदासीनता का आलंबन लेते हुए, समस्त परद्रव्यों की संगति दूर कर देने से मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संगतता होने से वास्तव में स्वसमय होते हैं / इसलिए स्वसमय ही आत्मा का तत्त्व है / " 23 इस टीका के बाद भावार्थ लिखते हुए कहा गया है कि "मैं मनुष्य हूँ, शरीरादि की समस्त क्रियाओं को मैं करता हूँ, स्त्री-पुत्र-धनादि के ग्रहण-त्याग का मैं स्वामी हूँ, इत्यादि मानना मनुष्य-व्यवहार है; तथा मात्र अचलित चेतन ही मैं हूँ' - ऐसा मानना-परिणमित होना ही आत्म-व्यवहार है। जो मनुष्यादि पर्याय में लीन हैं, वे एकान्तदृष्टिवाले लोग मनुष्य-व्यवहार का आश्रय करते हैं, इसलिए रागी-द्वेषी होते हैं और इस प्रकार परद्रव्य रूप कर्म के साथ सम्बन्ध करते होने से वे परसमय हैं / तथा जो भगवान आत्मस्वभाव में ही स्थित हैं, वे अनेकान्तदृष्टि वाले लोग मनुष्य व्यवहार का आश्रय नहीं करके आत्म-व्यवहार का आश्रय करते हैं, इसलिए रागी-द्वेषी नहीं होते अर्थात् परम उदासीन रहते हैं और इस प्रकार परद्रव्य रूप कर्म के साथ सम्बन्ध न करके, मात्र स्वद्रव्य के साथ ही सम्बन्ध करते हैं, इसलिए वे स्वसमय हैं / " 24 आचार्य जयसेन पर्यायमूढ़ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - "वे जीव कर्मोदय जनित मनुष्यादि रूप पर्यायों में निरत रहने के कारण परसमय या मिथ्यादृष्टि होते हैं।"