Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 145
________________ पर्याय मात्र को ग्रहण करने वाला नय: ऋजुसूत्रनय 135 अनुसार जो वर्तमान कालवर्ती घटादिक पर्याय रूप पदार्थों को ग्रहण करता है, उसको ऋजुसूत्रनय कहते हैं / वर्तमान क्षण में ही विद्यमान उन्हीं घटादिक पदार्थों के जानने को ऋजुसूत्रनय कहते हैं / सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि ऋजुसूत्र नय ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है / देवनन्दि पूज्यपाद कहते हैं कि ऋजु का अर्थ प्रगुण है / जो ऋजु अर्थात् सरल को सूत्रित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्रनय है। यह नय पहले हुए और पश्चात् होने वाले तीनों कालों के विषयों को ग्रहण न करके वर्तमानकाल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता / यह वर्तमान काल समयमात्र है और उसके विषयभूत पर्यायमात्र को विषय करने वाला यह ऋजुसूत्र नय है / तब प्रश्न उठता है कि इस तरह तो संव्यवहार के लोप का प्रसंग आता है ? किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ इस नय का विषयमात्र दिखलाया है, लोक संव्यवहार तो सब नयों के समूह का कार्य है / आचार्य अकलंकदेव के अनुसार जिस प्रकार यन्त्रादि या सुई में सरलसूत बिना किसी कठिनाई के डाला जाता है, उसी तरह ऋजुसूत्रनय एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय को विषय करता है। अतीत और अनागत चूँकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं, अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता / इसका विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है। यह नय व्यवहार लोप की कोई चिंता नहीं करता / व्यवहार तो पूर्वोक्त व्यवहार आदि नयों से ही सध जाता है / वीरसेनाचार्य मानते हैं कि ऋजु-प्रगुण अर्थात् एक समयवर्ती पर्याय को जो सूत्रित करता है अर्थात् सूचित करता है, वह ऋजुसूत्रनय है। इस नय का विषय पच्यमान पक्व है, जिसका अर्थ कंथचित् पच्यमान और कथंचित् उपरतपाक होता है / वे धवला में कहते हैं कि जो तीन काल विषयक अपूर्व पर्यायों को छोड़कर वर्तमान काल विषयक पर्याय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्रनय है। आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि ऋजुसूत्रनय प्रधान रूप से क्षण-क्षण में ध्वंस होने वाली पर्याय को वस्तुरूप में विषय करता है और वहाँ विद्यमान होते हुए भी विवक्षा नहीं होने से द्रव्य की गौणता है। भावार्थ यह है कि ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को ही वस्तु स्वरूप से विषय करता है, क्योंकि भूतपर्यायें तो नष्ट हो चुकी हैं और भविष्य पर्यायें अभी उत्पन्न ही नहीं हुई हैं / अतः उनसे व्यापार नहीं चल सकता। यह इस नय की दृष्टि है / यद्यपि यह नय द्रव्य का निरास नहीं करता, किन्तु उसकी ओर से इसकी दृष्टि उदासीन है / इसी से इस नय को पर्यायाथिक नय का भेद माना जाता है। उसकी दृष्टि में सभी पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, जबकि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में सभी पदार्थ सर्वदा उत्पत्ति और विनाश से रहित है। आचार्य देवसेन मानते हैं कि जो नय ऋजु अर्थात् अवक्र, सरल को सूत्रित अर्थात् ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्रनय है / सिद्धर्षि के अनुसार जो क्षणक्षण में नष्ट होने वाले परमाणु रूप विशेष सत्य हैं - ऐसा मानते हैं, उनके संघात से घटित ऋजुसूत्र है / 11 माइलधवल के अनुसार जो द्रव्य में एक समयवर्ती अध्रुवपर्याय को ग्रहण करता है, उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय कहते हैं / 12 वादिराजसूरि की मान्यता है कि जो नय प्रकृष्ट गुण सहित ऋजु अर्थात् सरल (मात्र वर्तमान) पर्याय को सूत्रित अर्थात् ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे इसके अनुसार सर्वत्र वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करना, न पूर्व की और न बाद की / 13

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