________________ शुद्धपर्याय का स्वरूप क्या है ? 75 मात्र की होती है / कोई भी पर्याय परमार्थतः दो समय की भी नहीं हो सकती / पर्याय का धर्म ही एक समय में उत्पाद-व्यय होना है। कोई भी पर्याय जो दो या दो से अधिक समय की बताई जाती है, वह अनेक पर्यायों में एकत्व के उपचार से ही बताई जाती है। पर्याय प्रतिसमय बदलती ही है, वह कथमपि रुक नहीं सकती, रोकी ही नहीं जा सकती - यह हमें सदा ध्यान रखना चाहिए / हम स्थूलज्ञानी हैं, अतः पर्यायों का प्रतिसमय बदलना पकड़ नहीं पाते हैं / परन्तु प्रत्येक पर्याय प्रतिसमय बदलती अवश्य है / बदलना अलग बात है और उसका हमें पता चलना अलग बात है। हमारा ज्ञान बहुत स्थूल है, अतः समय-समय के परिवर्तन का हमें पता नहीं चलता है, पर परिवर्तन होता अवश्य है। इसे हम एक दृष्टान्त के द्वारा इस प्रकार समझ सकते हैं / दो व्यक्ति एक साथ 8 नवम्बर की बाटा कम्पनी को नई चप्पल पहनकर मंदिर आये / जाते समय उन्होंने एक-दूसरे की चप्पलें पहन ली और अपने-अपने घर चले गये। दोनों ही जोड़ी आठ नम्बर की थी, बाटा कम्पनी की थी और एकदम नई थी, अतः उन दोनों को ही पता नहीं चला कि चप्पल बदल गई है / चप्पल बदली अवश्य है, पर सदृश होने के कारण पता नहीं चला है / यदि दोनों में से एक पुरानी होती या किसी अन्य कम्पनी की होती या किसी और नम्बर की होती तो पता चल जाता / कहने का तात्पर्य यही है कि बदलना अलग बात है और बदलने का हमें पता चलना अलग बात है / शास्त्रों में भी अनेक पर्यायों को सदृश देखकर एक कह दिया गया है और इसी कारण उन्हें चिरकालस्थायी भी बता दिया गया है, परन्तु हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि परमार्थ से प्रत्येक पर्याय एक ही समय की होती है, एक से अधिक समय की नहीं / हमारे पत्ता चलने और न चलने से वस्तुस्वरूप में क्या फर्क पड़ता है ? हमें तो तेजी से बढ़ने वाली लता, केश, नख, शिशु आदि भी तब बढ़े-से लगते हैं, जब वे बहुत अधिक बढ़ चुके होते हैं, जबकि वे प्रतिसमय ही बढ़ रहे होते हैं। सीधासा तर्क है और उसे हम सब समझते भी हैं कि यदि एक समय में वे थोड़ा भी नहीं बढ़े होते तो फिर दूसरे-तीसरे आदि समयों में भी नहीं बढ़े हो सकते थे और फिर दूसरे दिन भी हमें बढ़े हुए नहीं लग सकते थे। अतः यह प्रामाणिक है कि प्रत्येक पर्याय वस्तुतः एक ही समय की होती है, अनेक समय की नहीं; जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र आदि आचार्यों में स्पष्ट लिखा है - 'प्रतिसमयसमुदीयमान 2 इत्यादि / तथा श्रीमदभिनव धर्मभूषणयति का निम्नलिखित कथन तो इस सन्दर्भ में और भी अधिक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने प्रत्येक पर्याय को भूत-भविष्य के स्पर्श मात्र से रहित और वर्तमानकालावच्छिन्न कहा है - "भूतभविष्यत्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपम् / तदेतदृजुसूत्रनयविषयमानन्त्याभियुक्ताः / " इसी प्रकार 'गोम्मट्टसार' में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी पर्याय की स्थिति एक समय मात्र की कही है -