________________ 90 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा विभावपर्यायें होती हैं। पुद्गल विभावपर्यायें काल प्रेरित होती हैं, जो स्निग्ध और रूक्षगुण के कारण बंधरूप होती हैं। अर्थ पर्याय की अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते हैं / वसुनन्दि श्रावकाचार में लिखा है - वंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा / अत्थपरिणाममासिय सव्वे परिणामिणो अत्था // धर्मादिक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल के चार द्रव्य व्यञ्जनपर्याय के अभाव से अपरिणामी कहलाते हैं, किन्तु अर्थपर्याय की अपेक्षा सभी. पदार्थ परिणामी माने जाते हैं / ये अर्थपर्याय स्वभावपर्यायें हैं तथा आगमगम्य हैं, क्योंकि हम लोग एक क्षण को और उस एक क्षण के परिणमन को बुद्धि से ग्रहण ही नहीं कर सकते / समय अत्यंत सूक्ष्म है। अर्थपर्याय में होने वाला यह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भिन्न-भिन्न बाह्य कारणों की अपेक्षा नहीं रखता है, क्योंकि व्यञ्जनपर्याय में ही कदाचित् बाह्य कारणों की अपेक्षा रहती है। अतएव अर्थपर्याय रूप से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तो सिद्धों में भी पाया जाता है, वहाँ भी शुद्धात्मा में प्रतिक्षण षट्गुण हानि वृद्धि रूप से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता ही रहता है / सुमेरुपर्वत अनादि अनिधन है और पौद्गलिक है, उसमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हो रहा है / अकृत्रिम चैत्यालयों और उनमें स्थित अकृत्रिम प्रतिमाओं में और अनादि निधन वहां की ध्वजा, माला, तोरणद्वारों में भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हो रहा है / बालक पांच वर्ष का हुआ एकदम नहीं बढ़ा है। एक-एक महीने से तो क्या एक-एक दिन से वद्धि हुई है. किन्तु दिन प्रतिदिन की वृद्धि तो दिखती नहीं है और तो क्या घण्टे-घण्टे में भी बालक बढ़ता रहता है। अधिक सूक्ष्मता से विचार करें तो एक-एक समय से भी वृद्धि हो रही है। अगले क्षण की वृद्धि रूप उत्पाद, पूर्व क्षण का विनाश और दोनों अवस्थाओं में ध्रौव्य रूप आत्मा का निवास रहना, इसी का नाम उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है / अंकुर अवस्था का उत्पाद, बीज अवस्था का विनाश और पुद्गल रूप का अवस्थान दोनों ही अवस्थाओं में विद्यमान है, इसी को परिणाम भी कहते हैं / इस पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न सामग्री की अपेक्षा न रखता हुआ प्रत्येक पदार्थ अनन्त-धर्मात्मक है और क्रम से अविच्छिन्न रूप से अन्वय सन्ततिरूप अनुभव में आ रहा है। सभी पदार्थों की यही अवस्था है। व्यञ्जन पर्याय तो स्थिर स्थूल आकार वाली होती हैं, जैसे मनुष्य पर्याय सौ वर्ष की है, उसका विनाश होकर दो सागर की स्थिति वाला देव पर्याय का उत्पाद हो जाता है और दोनों अवस्थाओं में जीवात्मा अन्वय रूप में रहता है यह व्यञ्जन पर्याय है / आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है - "मूर्तो व्यञ्जनपर्यायो वाग्गम्यो नश्वरः स्थिरः / सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थ संज्ञकः // " ज्ञानार्णव 6/45 जो स्थिर, स्थूल, नश्वर है और वचन से कही जाती है, वह व्यञ्जनपर्याय है। इससे विपरीत सूक्ष्म और प्रतिक्षणध्वंसी - एक क्षणवर्तीमात्र जो पर्याय है, वह अर्थपर्याय कहलाती है /