________________ 98 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा है, जो निरन्तर द्रवणशील, परिणमनशील, परिवर्तनशील है। वह सामान्य रूप से सदैव वही रहते हुए प्रतिक्षण पूर्ववर्ती विशेष स्वरूप का परित्याग कर उत्तरवर्ती विशेष स्वरूप को प्राप्त करने की प्रक्रिया में विद्यमान शाश्वत सत्ता है और इसलिए सदैव उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है। जो नहीं है, उसकी उत्पत्ति उत्पाद, जो है उसका अभाव व्यय और निरंतर अवस्थिति ध्रौव्य कहलाता है / द्रव्य के समय विशेष में विद्यमान उत्पत्ति विनाशवान विशेष स्वरूप को पर्याय तथा निरंतर नयी पर्याय की प्राप्ति रूप से घटित हो रही परिवर्तन की प्रक्रिया के आधार रूप में विद्यमान अन्वयी (सदैव वही रहने वाले) और परिणमनशील सामान्य स्वरूप को द्रव्य कहा जाता है / इस प्रकार द्रव्य काल क्रम से निरन्तर नयी पर्याय रूप से परिणमित हो रहा शाश्वत तत्त्व है और पर्याय उस शाश्वत तत्त्व का समय विशेष में विद्यमान विशिष्ट स्वरूप है। द्रव्य का विशेष पर्यायों रूप से परिणमन कारणात्मक नियमों के अनुसार होता है / इसे स्पष्ट करते हुए अकलंकदेव कहते हैं, “जो स्व प्रत्यय (उपादान योग्यता) और प्रत्यय (निमित्त कारण) के सद्भावानुसार उत्पत्तिविनाशवान पर्यायों को प्राप्त होता है, पर्यायों से प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहा जाता है।"६ इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार उड़द अपनी सीझ सकने की उपादान योग्यता तथा उन्हें खोलते हुए पानी में देर तक डाले जाने रूप बाह्य परिस्थितियों के सद्भाव पूर्वक ही अपने 'कच्चे उड़द' रूप पूर्ववर्ती अवस्था का परित्याग कर 'सीझे हुए उड़द' रूप उत्तरवर्ती अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं, यदि उनमें सीझने की उपादान योग्यता का अभाव हो अथवा उन्हें खौलते हुए पानी में देर तक डाले जाने रूप बाह्य कारण की प्राप्ति नहीं हो तो कच्चे उड़द कभी सीझे हुए उड़द रूप पर्याय को प्राप्त नहीं कर सकते / इसी प्रकार द्रव्य का समय विशेष में एक विशेष पर्याय रूप से परिणमन उसकी उपादान योग्यता और निमित्त कारणों के सद्भावानुसार होता है / द्रव्य की प्रतिसमय एक विशेष पर्याय रूप से उत्पत्ति की उपादान योग्यता द्रव्य का गुणपर्यायात्मक स्वरूप है / उसके इस स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अकलंकदेव कहते हैं, "द्रव्य गुणपर्यायवान होता है। ये विज्ञानादि गुण और पर्याय द्रव्य में सहवर्ती और क्रमवर्ती रूप से विद्यमान हैं / ये शक्ति-व्यक्ति स्वरूप हैं तथा इनमें रसादि के समान भेदाभेद सम्बन्ध है। इसकी व्याख्या करते हुए वादिराज कहते हैं "द्रव्य की सहवर्ती (द्रव्य में सदैव युगवत् विद्यमान) विशेषताएँ, यथा-आत्मा में युगपत् विद्यमान ज्ञानदर्शन सुख वीर्यादि तथा पुद्गल में युगपत् विद्यमान रूप रसगन्धस्पर्शादि गुण हैं / आत्मा में क्रमवर्ती रूप से विद्यमान हर्ष, विषाद आदि अथवा पुद्गल में क्रमवर्ती रूप से विद्यमान कोश, कुशूल आदि विशेषताएँ पर्याय हैं। 'ये विज्ञानादि गुण पर्याय शक्ति-व्यक्ति स्वरूप हैं के अर्थ को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, "जो व्यंजित होता है, अभिव्यक्त होता है, वह व्यक्ति है / गुणों का वर्तमानकालीन व्यक्त स्वरूप ही व्यक्ति है। कार्योत्पादन की सामर्थ्य को शक्ति कहा जाता है।"८ वादिदेव कहते हैं कि वर्तमान समय में घटज्ञानादि रूप से ज्ञान पर्याय की योग्यता को ज्ञान का शक्ति रूप कहा जाता है / गुण द्रव्य की अनिवार्य विशेषताएँ हैं / ये द्रव्य को गुणती हैं अर्थात् विशेषित करती हैं, उसे अन्य द्रव्यों से पृथक् एक निश्चित विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती हैं। ये द्रव्य का ऐसा शाश्वत् और सामान्य