________________ 100 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। लेकिन यह परस्पर निरपेक्ष अनेक गुणों का समूह मात्र या उनसे भिन्न उनका आश्रय मात्र न होकर, उनमें व्याप्त एक अखण्ड सत्ता है / वस्तुतः एक द्रव्य के नाम, लक्षण, प्रयोजनादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक स्वभाव गुण हैं, तथा ये अनेक गुण ही परस्पर तादात्म्य (तादात्म्य तत्+आत्म्य) सम्बन्ध में सम्बन्धित होने के कारण एक दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए१५ एक द्रव्यरूपता को प्राप्त कर रहे हैं / 15 अनेक गुणों के ही परस्पर एक दूसरे का स्वरूप होते हुए एक द्रव्य होने तथा द्रव्य और गुण के एक सत्ता होने के कारण वे अन्योन्यवृत्ति स्वरूप हैं अर्थात् एक दूसरे में रहते हैं / 16 एक द्रव्य अपने समस्त गुणों में तथा एक गुण अपने आश्रयभूत सम्पूर्ण द्रव्य में अर्थात् द्रव्य के समस्त गुणों में रहता है / इस प्रकार द्रव्य और गुण दो पृथक्-पृथक् सत्ता न होकर एक वस्तु हैं / कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं, "द्रव्य के बिना गुण नहीं होते तथा गुण के बिना द्रव्य नहीं होता। इसलिए द्रव्य और गुण परस्पर अभिन्न है / "17 इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, "रूपरसगन्धस्पर्श ही पुद्गल परमाणु कहलाते हैं / ये रूपरसादि अपने विशेष स्वरूप में परस्पर भिन्न-भिन्न होते हुए भी द्रव्य रूप से अभिन्न है / "18 इसी प्रकार, "जीव में निबद्ध ज्ञान दर्शन भी परस्पर अभिन्न हैं / इन्हें भाषा द्वारा ही अलग किया जा सकता है, स्वभावतः नहीं।"१९ इन पदों की व्याख्या करते हुए अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं "जिस प्रकार पुद्गल से पृथक् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं होते, उसी प्रकार गुणों से पृथक् द्रव्य नहीं होता / इस प्रकार द्रव्य और गुण में आदेशवशात् कथंचित् भेद हैं तथापि ये एक अस्तित्व में नियत होने के कारण अन्योन्यवृत्ति नहीं छोड़ते, इसलिए इनमें वस्तु रूप से अभेद भी हैं / "16 द्रव्य और गुण में संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भेद होता है / द्रव्य एक होता है, जबकि गुण अनेक होते हैं, द्रव्य का नाम. यथा-पदगल भिन्न होता है तथा गणों का नाम रूप, रस आदि भिन्न होते हैं, इनके लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं / इन नाम, लक्षणादि की अपेक्षा भेद होने पर भी द्रव्य और गुण में तात्विक रूप से अभेद है। द्रव्य और गुण में भेदाभेद सम्बन्ध को हम निम्न दृष्टान्त द्वारा समझ सकते हैं। जिस प्रकार रंग और आकार पुद्गल स्कंध के ऐसे दो स्वभाव हैं जो नाम, लक्षणादि की अपेक्षा भिन्न तथा तात्विक रूप से अभिन्न हैं; रंग हरा, नीला, आदि रूप तथा आकार गोल, चौकोर आदि रूप होता है। रंग के हरे, नीले, आदि विशिष्ट स्वरूप से उसके आकार का तथा आकार के गोल चौकोर आदि विशिष्ट स्वरूप से स्कंध के रंग का हरा, नीला आदि विशिष्ट स्वरूप निर्धारित नहीं होता / इस स्वरूप भेद और इसके कारण नाम, लक्षणादि की अपेक्षा भेद होने पर भी रंग और आकार अपृथक् हैं तथा ये एक दूसरे का स्वरूप होते हुए रंग-आकारमय एक सत्ता हैं / आकार सदैव किसी विशेष रंगमय होकर ही तथा रंग किसी विशेष आकार में अवस्थित होकर ही विद्यमान होता है तथा रंग रहित आकार तथा आकार रहित रंग की सत्ता कभी नहीं होती / रंग और आकार रूप दो भिन्न-भिन्न स्वभावों के रंग-आकारमय एक अभिन्न सत्ता के ही प्रत्येक वस्तु के परस्पर भिन्न अनेक सहवर्ती स्वभाव-गुण ही परस्पर एक दूसरे का स्वरूप होते हुए एक अभिन्न सत्ता-एक द्रव्य हैं /