________________ 106 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा उत्तर क्षण में कुछ विशेष पर्यायों रूप से ही परिणमन की योग्यता रखता है। यदि उसका जल से संयोग हो जाये तो वह पिण्ड रूपता को प्राप्त कर लेगा, यदि उसका अग्नि से संयोग हो जाये तो उसका पीलापन लाल या काले रंग में रूपान्तरित हो जायेगा; उसकी कोमलता कठोरता में बदल जायेगी / इन सीमित सम्भावनाओं में से जिस विशिष्ट स्वरूप की प्राप्ति के लिए अनिवार्य निमित्त कारणों का सद्भाव होता है, द्रव्य उत्तरवर्ती क्षण में अपनी पूर्ववर्ती पर्याय का परित्याग कर, उस विशेष पर्याय रूप से रूपान्तरित हो जाता है। एक वस्तु मात्र द्रव्य या मात्र पर्याय न होकर द्रव्यपर्यायात्मक सत्ता है। द्रव्य की प्रत्येक पर्याय द्रव्य ही होती है और इसलिए वह अपनी प्रत्येक पर्याय में अपने सामान्य स्वरूप की समस्त विशिष्ट अभिव्यक्तियों को प्राप्त करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण है / लेकिन द्रव्य की विशेष पर्याय रूप से परिणमन की सामर्थ्य, उसकी द्रव्यरूपता के कारण न होकर, उसके पर्यायात्मक स्वरूप के कारण है। द्रव्य अपनी अनन्त सम्भावनाओं में से किस पर्याय को कब और किस प्रकार प्राप्त कर सकता है, यह उसकी वर्तमानकालीन पर्याय के विशिष्ट स्वरूप द्वारा निर्धारित होता है / मृत्तिका कण रूप से अवस्थित पुद्गल द्रव्य में घट रूपता को प्राप्त करने की सामर्थ्य है, लेकिन इस सामर्थ्य की अभिव्यक्ति अव्यवहित उत्तर क्षण में न होकर, निमित्त कारणों के सद्भाव पूर्वक उनमें पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूलादि पर्यायों रूप में घटित होने वाली परिवर्तन की लघु प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव है। मृत्तिका कणों में मिट्टी के अनेक पर्यायों को प्राप्त करने की सामर्थ्य ही नहीं है, बल्कि ये पुद्गल द्रव्य की समस्त पर्यायों की सम्भाव्यता स्वरूप भी हैं / वे खनिज तेल बन सकते हैं, जल बन सकते हैं, स्वर्णाभूषण बन सकते हैं, लेकिन उनका इन रूपों में परिवर्तन अव्यवहित उत्तर क्षण में सम्भव न होकर, निमित्त कारणों के सद्भाव में घटित होने वाली परिवर्तन की दीर्घ कालिक प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव है। किसी भी विशेष पर्याय को प्राप्त करने की शाश्वत सामर्थ्य से परिपूर्ण है / लेकिन पर्याय में विद्यमान पुद्गल द्रव्य निकटवर्ती या सुदूरवर्ती किसी भी क्षण में अपने रूपरसगन्धस्पर्शमय सामान्य स्वरूप की किसी भी विशेष पर्याय को प्राप्त करने की शाश्वत सामर्थ्य से परिपूर्ण है। लेकिन पुद्गल द्रव्य में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमय चेतन स्वरूप की प्राप्ति की क्षमता का अत्यन्ताभाव होने के कारण पुद्गल द्रव्य कभी भी जीव द्रव्य रूप से परिणमित नहीं हो सकता / द्रव्य का सदैव किसी न किसी पर्याय रूप से परिणमित होते रहना अनिवार्य स्वभाव होते हुए भी उसका एक विशेष पर्याय रूप से परिणमन एक आकस्मिक घटना है / द्रव्य की वर्तमान कालीन पर्याय के अनित्य होने तथा उसके उत्तरवर्ती पर्याय रूप से परिणमन निमित्त कारणों के सद्भावनुसार होने के कारण द्रव्य का विशेष पर्यायों रूप से परिणमन अनियत या अनवस्थित होता है / 39 यदि मृत्तिका कणों का जल संयोग हो तो ही वे पिण्ड रूपता को प्राप्त कर सकते हैं तथा उनमें परिवर्तन की लघु प्रक्रिया द्वारा घट रूपता की प्राप्ति की सम्भावना होती है, लेकिन यदि वे अग्नि में तप जायें तो उनकी यह सम्भावना समाप्त हो जाती है तथा वे परिवर्तन की दीर्घ प्रक्रिया द्वारा ही घट रूपता को प्राप्त कर सकते हैं। यदि मृत्तिका कण पिण्ड रूप में परिवर्तित हो जाते हैं तो उस पर्याय में अव्यस्थित होने पर