________________ 96 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा दण्डी पुरुष का भिन्न-भिन्न प्रदेशपन रूप भेद है, तथा वे दोनों मिल जाते हैं ऐसा भेद गुण और गुणी में नहीं है, इसमें उनके अयुत सिद्धपना या एकपना कहा जाता है। इस कारण द्रव्य और गुणों का अभिन्नपना सदा से सिद्ध है। ___ अर्थ अनेकधर्मात्मक है / उसका अखण्डरूप से ग्रहण करना कदाचित् संभव है, पर कथन या व्यवहार तो उसके किसी खाश रूप धर्म से ही होता है। इसी व्यवहारार्थ भेद रूप से विवक्षित धर्म को गुण कहते हैं / गुण द्रव्य का ही परिणमन है, वह स्वतंत्र पदार्थ नहीं है / चूंकि गुण पदार्थ के धर्म हैं, अतः ये स्वयं निर्गुण-गुण-शून्य होते हैं / यदि गुण स्वतंत्र पदार्थ माना जाये और वह भी द्रव्य से सर्वथा भिन्न, तो अमुक गुण ज्ञान अमुक गुणी आत्मा से ही रहता है पृथिव्यादि में नहीं इसका नियामक कौन होगा / इसका नियामक तो यही है कि ज्ञान का आत्मा से ही कथंचित्तादाम्य है, अतः वह आत्मा में ही रहता है पृथिव्यादि में नहीं / वैशेषिक मत में एक गन्ध, दो रूप आदि प्रयोग नहीं हो सकेंगे; क्योंकि गन्ध, रूप तथा संख्या आदि सभी गुण हैं और गुण स्वयं निर्गुण होते हैं। यदि आश्रयभूत द्रव्य की संख्या का एकार्थ समवाय सम्बन्ध के कारण रूपादि में उपचार करके 'एक गन्ध' इस प्रयोग का निर्वाह किया जाएगा तो एक द्रव्य में रूपादि बहुत गुण हैं, यह प्रयोग असंभव हो जायेगा; क्योंकि रूपादि बहुत गुणों के आश्रयभूत द्रव्य में तो एकत्व संख्या है, बहुत्व संख्या नहीं / अतः गुण को स्वतंत्र पदार्थ न मानकर द्रव्य का ही धर्म मानना चाहिए / धर्म अपने आश्रयभूत धर्मी की अपेक्षा से धर्म होने पर भी अपने में रहने वाले अन्य धर्मों की अपेक्षा से धर्मी भी हो जाता है। जैसे रूपगुण आश्रयभूत घट की अपेक्षा से यद्यपि धर्म है पर अपने में पाये जाने वाले एकत्व, प्रमेयत्व आदि धर्मों की अपेक्षा धर्मी है। अतः जैन सिद्धान्त में धर्मर्मिर्भाव के अनियत होने के कारण एक गन्ध दो रूप आदि प्रयोग बड़ी आसानी से बन जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य से समवाय को पृथक् माना गया है। जैनदर्शन में समवाय तो द्रव्य की गुणादि पर्याय है। यदि गुणादि को द्रव्य से भिन्न मानेंगे तो द्रव्य में अद्रव्यत्व का प्रसंग आयेगा, क्योंकि गुणों को छोड़कर द्रव्य नहीं रहता है। जैनदर्शन में वस्तु को अनेकान्तात्मक माना गया है। वहाँ न तो सर्वथा भेदवाद का स्वीकार किया गया है न ही अभेदवाद का बल्कि कथंचित् भेदाभेद वाद को माना गया है, अतः द्रव्य, गुण, पर्याय में वह सिद्ध है।