________________ 93 जैनदर्शन में द्रव्य-गुण-पर्याय भेदाभेदवाद की अवधारणा अगुरुलघु गुण का परिणमन स्वभाविक अर्थपर्यायें हैं / वे पर्यायें बारह प्रकार की हैं 6 वृद्धिरूप और 6 हानि रूप / अनंतभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्त गुणवृद्धि ये 6 वृद्धि रूप पर्यायें हैं / अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुण हानि, असंख्यातगुणहानि, अनंतगुणहानि ये 6 हानि रूप पर्यायें हैं / शंका - यदि गुणों का समुदाय ही द्रव्य है तो द्रव्य में जितनी भी पर्यायें होंगी वे सब नियम से गुणपर्याय ही कही जानी चाहिए, द्रव्य पर्याय किसी को भी नहीं कहना चाहिए / समाधान - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गुणत्व धर्म की अपेक्षा यद्यपि सब गुण हैं तो भी उनमें विशेषता है / जैसे उनमें कोई चेतन गुण हैं और कोई अचेतन गुण हैं, वैसे ही वे क्रियावती शक्ति और भाववती शक्ति के भेद से भी दो प्रकार के हैं। उनमें से प्रदेश को या देश परिस्पन्द को क्रिया कहते हैं और शक्ति विशेष को या अविभाग प्रतिच्छेदों के द्वारा होने वाले उनके परिणाम को भाव कहते हैं / इसलिए जितने प्रदेश रूप अवयव होते हैं, उतने द्रव्य-पर्याय कहलाते हैं और जितने गुणांश होते हैं / उतने गुणपर्याय कहे जाते हैं / गुण नित्य होते हैं कि अनित्य यह विवाद पुराना है, जैन परम्परा इनमें से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करती है। उनके मत से द्रव्य के समान गुण भी कथंचित् और कथंचित् अनित्य होते हैं, क्योंकि गुण द्रव्य से पृथक् नहीं पाये जाते हैं, इसलिए द्रव्य का जो स्वभाव ठहरता है, गुणों का भी वही स्वभाव प्राप्त होता है ऐसा नहीं होता कि कोई गुण वर्तमान में हो और कुछ काल बाद न रहे, जितने भी गुण होते हैं वे सदा पाये जाता है / उदाहरणार्थ जीव में ज्ञान आदि का पुद्गल में रूप आदि का सदा अन्वय देखा जाता है। ऐसा समय न तो कभी प्राप्त हुआ और न कभी हो सकता है, जब जीव में ज्ञान आदि गुण न रहें और पुद्गल में रूप आदि न रहें। इससे ज्ञात होता है कि गुण नित्य हैं / उनकी यह नित्यता प्रत्यभिज्ञानगम्य है। माना कि विषय भेद से जीव का ज्ञान गुण बदल जाता है / जब वह घट को जानता है तब वह घटाकार हो जाता है और पट को जानते हुए पटाकार, तथापि ज्ञान की धारा नहीं टूटती, इसलिए सन्तान की अपेक्षा वह नित्य ही है / वास्तव में देखा जाए तो नित्य और सन्तान ये एकार्थवाची ही हैं / इनको छोड़कर ध्रुव भी और कुछ नहीं / जैन परम्परा में ऐसा ध्रुवत्व इष्ट नहीं जो सदा अपरिणामी रहे / सांख्य पुरुष को कूटस्थ नित्य मानते हैं सही पर प्रकृति के सम्पर्क से उसे बद्ध जैसा मान लेने पर वह कूटस्थता बन नहीं सकती। यही बात नित्यवादियों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए / इस प्रकार उक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि गुण विविध अवस्थाओं में रहकर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता, इसलिए तो वह नित्य है / जैसे हरा आम पकने पर पीला हो जाता है, तथापि उससे रंग जुदा नहीं होता / इससे ज्ञात होता है कि वर्ण नित्य है, यही बात सब गुणों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए / इस प्रकार गुणों की कथंचित् अनित्यता का विचार करते हैं / जैन परम्परा में नित्यता का यह मतलब नहीं कि वह सदा एक सा बना रहे. उसमें किसी प्रकार का भी परिणमन न हो। यह तो समझ में आता है कि किसी भी वस्तु या गुण में विजातीय परिणमन नहीं होता। जीव बदल कर पुद्गल या अन्य द्रव्य रूप नहीं होते / जीव सदा जीव ही बना रहता है और पुद्गल सदा पुद्गल ही / तात्पर्य