________________ 85 'पर्याय' की अवधारणा में निहित दार्शनिक मौलिकता एवं विशेषता 9. पंचास्तिकाय, गाथा 5 की तत्त्वप्रदीपिका टीका / 10. आलापपद्धति, पृष्ठ 6, परमात्मप्रकाश मूल पद्य 57 / 11. परीक्षामुख, 4/81 / / 12. पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध, कारिका 89 / 13. राजवार्तिक, अध्याय 5, सूत्र 22 / 14. प्रवचनसार, गाथा 93 की तत्त्वप्रदीपिका टीका / 15. पंचास्तिकाय, गाथा 16 की तात्पर्यवृत्ति टीका / 16. प्रवचनसार, गाथा 92 की तत्त्वप्रदीपिका टीका / 17. पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध, गाथा 135 / 18. पंचास्तिकाय, गाथा 16 की तात्पर्यवृत्ति टीका / 19. वही। 20. वही। 21. प्रवचनसार, गाथा 87 की तत्त्वप्रदीपिका टीका / 22. धवला, 4/1,5,4/337 / 23. बृहद्नयचक्र, गाथा 17-19 / 24. आलापपद्धति, पृष्ठ 3 / 25. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अध्याय 4, सूत्र 1, वार्तिक 33 / 26. मोक्षपंचाशत, पद्य 23-25 / 27. नियमसार, गाथा 15 की तात्पर्यवत्ति टीका / 28. वही, गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति टीका / 29. बृहद्नयचक्र, गाथा 360-360 / 30. वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा 25 / टिप्पणियाँ मंगलाचरण - तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः / दर्पणतल इव सकला प्रतिफलित पदार्थमालिका यत्र // (आचार्य अमृतचंद्र, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय) पर्याय के स्वरूप की विशेषतायें- पर्याय का स्वरूप मूलतः क्षणस्थायी माना गया, तथा काल की अनादिअनन्ता के कारण पर्यायें भी (प्रत्येक द्रव्य एवं प्रत्येक गुण की) अनन्त मानी गयीं हैं, जो प्रतिसमय परिवर्तनशील हैं। पर्याय की विशेषता और सर्वज्ञ- जैन मान्यता के अनुसार पुद्गल-परमाणु एक समय में चौदह रज्जु प्रमाण गमन कर सकता है। 'समय' के इतने सूक्ष्म स्वरूप का आकलन क्या प्रत्यक्ष के अलावा अन्य कोई ज्ञान कर सकता है? यदि नहीं, तो मति-श्रुतज्ञान तो परोक्ष होने से छूट जायेंगे / तथा अवधि-मनःपर्यायज्ञान पुद्गल-ग्राही होने से जाल्पी काल के सूक्ष्मतम अंश 'समय' को ग्रहण करने में असमर्थ हैं ही। तब केवलज्ञान और केवलज्ञानी के बिना 'पर्याय' के माप 'समय'