________________ 'पर्याय' की अवधारणा में निहित दार्शनिक मौलिकता एवं विशेषता 83 चतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः / साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध-सद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवलसुख-केवलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन सार्द्ध परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च / अर्थात् सहज शुद्ध निश्चय से अनादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहज परमवीतरागसुखात्मक शुद्धअन्तस्तत्त्वरूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचमभाव-परिणति, वही कारणशुद्धपर्याय है। सादिअनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्तचतुष्टय के साथ ही परमोत्कृष्ट क्षायिकभाव की जो शुद्ध-परिणति, वही कार्यशुद्धपर्याय है / ये दोनों भेद स्वभावपर्याय के माने गये हैं। जो कारणशुद्धपर्याय एवं कार्यशुद्धपर्याय हैं, इन्हें ही लगभग मिलते-जुलते अभिप्राय से कार्यशुद्ध जीव एवं कारणशुद्ध जीव भी कहा गया है / - शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधार भूतत्वात्कार्यशुद्धजीवः / ... शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः / 28 अर्थात् शुद्ध-सद्भूतव्यवहारनय से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण कार्य शुद्धजीव' (सिद्ध पर्याय) है / शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि परमस्वभाव गुणों का आधार होने के कारण (त्रिकाली शुद्ध चैतन्य) कारणशुद्ध जीव है। इन्हीं को 'कारणसमयसार' और 'कार्यसमयसार' भी कहा गया है - कारणकज्जसहावं समयं कादूण होदि झायव्वं कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीव सब्भावो / खय पुणु सहाव-झाणे तहया तं कारणं झेयं / 9 अर्थात् कारण व कार्यसमयसार को जानकर ध्यान करना चाहिए / कार्यसमयसार शुद्धस्वरूप है तथा कारणसमयसार उसका साधन है। शुद्ध तथा कर्मों के क्षय से कार्यसमयसार होता है। कारणसमयसार जीव का स्वभाव है, स्वभाव के ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है; इसलिए कारणसमयसार का ध्यान करना चाहिए / तृतीय वर्ग : पर्याय की मौलिक विशेषता - अनेकान्तात्मकता जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप द्रव्य से कालभेद के आधार पर माना गया है, प्रदेशभेद के आधार पर नहीं। बौद्धों ने प्रदेशभेदवत् अनित्यत्व या पर्यायधर्म को वस्तु का ही स्वरूप मान लिया था। इस ऐकान्तिक मान्यता के कारण बौद्धों का क्षणभंगवाद जैनाभिमत पर्याय का स्थान नहीं ले सका / तथा सांख्यों के द्वारा माना गया पुरुष का कूटस्थनित्य स्वरूप भी पर्यायपक्ष की पूर्ण उपेक्षा के कारण लोकग्राह्य नहीं हो सका। वस्तुतः पर्याय जैनदर्शन की ऐसी मौलिक अवधारणा है, जो द्रव्यात्मक स्वरूप से न तो वस्तुतः भिन्न है, और न ही पूर्णतः वस्तुरूप ही है। ऐसा प्रतिपादन जैनदर्शन की अनेकान्तात्मक चिंतन-पद्धति