________________ 84 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा के कारण ही संभव हो सका / जैसे कि 'अंगुली का हिलना' में यदि अंगुली को द्रव्यरूप मान लिया जाये (यह मात्र उदाहरण के लिए कहा जा रहा है, वस्तुतः अंगुली पुद्गल की व्यञ्जनपर्याय है), तो हिलना रूप पर्याय न तो अंगुली से पूर्णतः भिन्न है और न ही पूर्णतः अभिन्न है; क्योंकि यदि पूर्णतः भिन्न माना जाये तो अंगुली के बिना हिलना अपना अस्तित्व कहाँ सिद्ध करेगा और उस अंगुली का हिलना कैसे कहा जा सकेगा? तथा यदि पूर्णतः अभिन्न माना जाये, तो हिलना समाप्त होते ही अंगुली को भी समाप्त होना पड़ेगा। अतः वह हिलना पर्याय के रूप में अपने द्रव्य से कथंचित् भिन्नाभिन्न अनेकान्तरूप से ही सिद्ध होता है। यह सामान्य क्षणिक पर्याय के बारे में अनेकान्तात्मक चिंतन है। पर्याय के क्षणिकत्व और अक्षणिकत्व की दृष्टि से भी उसे अनेकान्तात्मक माना जाता है, अन्यथा कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय तथा अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय का स्वरूप-भेद संभव नहीं होगा। क्योंकि कार्यशुद्धपर्याय (सिद्धपर्याय) अर्थपर्याय के रूप में प्रतिसमय परिवर्तनशील होती है, जबकि उन्हीं सिद्धों की आत्मप्रदेशों की आकृतिगत व्यञ्जनपर्याय सादि-अनंत एकरूप मानी गयी है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवलाग्रंथ (9/4, 1, 48/ 243) में व्यञ्जनपर्यायों की स्थिति अंर्तमुहुर्त से लेकर 6 मास या संख्यातवर्ष तक माना है। जबकि अर्थपर्याय विशुद्ध क्षणभंगुर ही मानी गयी है - खणखइणो अत्थपज्जया दिया / इस प्रकार काल की दृष्टि से भी पर्याय का स्वरूप पूर्णतः क्षणभंगुर नहीं है, और वह अनेकान्तात्मक ही सिद्ध होती है। __ यहाँ यह प्रश्न संभव है कि द्रव्य और गुणों से पर्याय का स्वरूप कालगत क्षणिकता के कारण ही भिन्न माना गया था, जबकि यदि कुछ पर्यायें क्षणिक नहीं है, तो उनका पर्यायत्व कैसे प्रतिपादित करेंगे? इसका समाधान यही है कि पर्याय का स्वरूप द्रव्य और गुणों की अपेक्षा कालगत भेद पर आधारित है. और इसी आधार पर इन सभी क्षणिक-अक्षणिक पर्यायों को द्रव्य और गण से स्वतंत्र माना एवं कहा गया है। वस्तुतः यह एक ऐसा विषय है, जिसका प्रतिपादन तो सर्वज्ञों के द्वारा किया गया है, तथा सम्प्रति इसका चिंतन एवं उहापोह सामान्य जनों के द्वारा किया जा रहा है, अतः यह स्वरूप इस दार्शनिकों की संगति में व्यापकरूप से मननीय है / संदर्भ राजवार्तिक, अध्याय 1, सूत्र 331, धवला, 1/1,1,1/48 / 2. आलापपद्धति, 6 / 3. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 1, सूत्र 33 / 4. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 572 / 5. स्याद्वादमंजरी, कारिका 23, पृष्ठ 272 / 6. पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध, कारिका 60 / 7. तत्त्वार्थसूत्र, 5/42 / 8. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 5, सूत्र 28 /