________________ जैनदर्शन में द्रव्य-गुण-पर्याय भेदाभेदवाद की अवधारणा अशोक कुमार जैन विश्व जड़ और चेतन दो प्रकार के तत्त्वों का समुदाय है। वेदान्त दर्शन के अतिरिक्त प्रायः अन्य सब दर्शनों ने इनकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है / आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है - पज्जय-विजुदं दव्वं-दव्वं विजुत्तं य पज्जया णस्थि / दोण्हं अणण्णभूदं भाव समणा परूविति // पञ्चास्तिकाय, गाथा 12 अर्थात् पर्यायों से रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्याय नहीं होती / दोनों का अनन्यभाव श्रमण प्ररूपित करते हैं। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में द्रव्य के विषय में चार मत प्राप्त होते हैं / वेदान्त दर्शन का मत है कि जगत् में जो कुछ है वह एक है, सद्रूप है और नित्य है। यह मत मात्र एक चेतन तत्त्व की प्रतिष्ठा करता है और विश्व की विविधता को माया का परिणाम बतलाता है / इसके विपरीत बौद्ध मत है कि जगत् में जो कुछ है वह नाना है और विशरणशील है / वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह पदार्थों को स्वीकार किया गया है। यह सत् को मानने के साथ असत् को भी मानता है, परन्तु दोनों को निरपेक्ष मानता है / वह सत् में भी परमाणु द्रव्य और काल, आत्मा आदि को नित्य और कार्य द्रव्य घट पट आदि को अनित्य मानता है। सांख्य मत सत् के चेतन और अचेतन दो भेद करता है, जिसे प्रकृति और पुरुष के नाम से कहा गया है। उसमें पुरुष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य माना गया है / जैन परम्परा में द्रव्य को परिभाषित करते हुए लिखा गया है - दव्वं सल्लक्खणयं उप्पाद-व्वय-धुवत्त-संजुत्तं / गुण-पज्जया, सयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू // पञ्चास्तिकाय, गाथा 10